Editorial: निजीकरण बनाम कल्याणकारी राज्य

Update: 2024-10-09 13:46 GMT
Editorial: निजी क्षेत्र का अनावश्यक पक्ष लेना अब बंद करना होगा। अब ऐसे आर्थिक सुधारों की नींव रखने का समय आ गया है, जिसमें 'कल्याणकारी राज्य' के लिए निजी क्षेत्र को भी बराबर का जिम्मेदार बनाया जाए। इस समय स्थितियां बड़ी विपरीत हैं। हम आर्थिक तरक्की के भ्रम में दिन-ब- दिन खुद को हांक रहे हैं। दूसरी तरफ, इस बात की स्वीकृति भी दे रहे हैं कि देश के गरीब आदमी की आय बढ़ाने के लिए एक लंबा सफर तय करना अभी बाकी है। गरीबी दूर करने के लिए आर्थिक असमानता एक मुख्य बाधा है। इन दिनों एक अजीब द्वंद्व या छलावा भी दिखता है, जब कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारी के साथ-साथ सरकारों द्वारा अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए सामाजिक कल्याण को आर्थिक नीतियों में ज्यादा तरजीह दी जा रही है। इससे आर्थिक विकास पर बहुत विपरीत असर पड़ रहा है। राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्रों में वह सब कुछ शामिल हो रहा है, जो लोकलुभावन अधिक है, सर्वहित के लिए कम कल्याणकारी है। इससे राज्यों पर आर्थिक दबाव लगातार बढ़ रहा है।
नब्बे के दशक में उदारीकरण से निजी क्षेत्र को आगे बढ़ने का मौका मिला, पर अब समय आ गया है कि कल्याणकारी राज्य और सामाजिक कल्याण दोनों का मिश्रण गरीबी दूर करने के लिए एक ! एक मुख्य उद्देश्य के तौर पर आर्थिक नीतियों में जगह ले और उसके संचालन की जिम्मेदारी सरकारों के साथ-साथ निजी क्षेत्र भी उठाए। भारत में कभी आर्थिक नीतियों में निजी क्षेत्र को एकाधिकार नहीं दिया गया। आजादी के से आर्थिक नीतियां सरकारी संरक्षण में ही रहीं। हालांकि आर्थिक विकास के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि सरकारी संरक्षण में बनीं, पली और बढ़ीं आर्थिक नीतियां, जिन्हें लोकहितकारी राज्य बनाने की सोच से देश के आर्थिक विकास को एक सुस्त वृद्धि ही मिली। इसी कारण हम विकसित मुल्कों की तुलना में पिछड़ते गए। इन दिनों अमेरिका में आर्थिक नीतियों का विरोध हो रहा है। वहां इस बात की मांग उठ रही है कि अर्थव्यवस्था का रुख अब पूंजीवाद से समाजवाद की तरफ मुड़ना चाहिए। इसके बाद से यह चर्चा विश्व की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भी शुरू हो गई है कि बदलाव का रुख उन्हें भी अपनाना होगा या उसमें अभी देरी है। भारत में भी पिछले कुछ अरसे से यह सुनने को मिलता कि देश में पूंजीपतियों की संख्या बढ़ रही जबकि गरीबी कम नहीं हो रही। यह कोई हैरत की बात नहीं, बल्कि पूंजीवादी आर्थिक नीतियों के चलते पैदा हुई आर्थिक विषमता का परिणाम है।
समाज में पूंजीवाद का विरोध इसलिए भी जायज लगता है। कि करीब सभी जगह सरकारें आर्थिक विकास की बागडोर पूरी तरह निजी क्षेत्र के हवाले कर देती हैं और कई दफा उनकी गलतियों के बावजूद उन्हें संरक्षित भी करती हैं। अमेरिका में तो यह सब बहुत आम हो गया है। 2005-06 में निजी क्षेत्र की गलत नीतियों के चलते ही अमेरिका में मंदी का सामना करना पड़ा। मगर यह सोचना भी आवश्यक है कि क्या समाजवाद के माध्यम से आर्थिक विकास को वह तेजी दी जा सकती है, जो पूंजीवाद की नीतियों से मिलती है ? आर्थिक नीतियों के सरकारी संरक्षण के दौरान भारत में 1960 से 1990 के तीन दशकों में प्रति व्यक्ति औसत आय में वृद्धि मात्र 1.6 फीसद थी। 1990 के बाद से अब तक यह 3.6 फीसद रही। वहीं वर्ष 2005 से वर्ष 2010 तक का समय आर्थिक सुधारों के कारण काफी तेजी से बढ़ने का था। इसलिए वृद्धि दर 4.3 फीसद थी और 2010 के बाद से प्रति व्यक्ति विकास दर ने अपने अधिकतम स्तर 4.9 फीसद को छुआ। गौरतलब है कि 1991 के बाद भारतीय आर्थिक नीतियों में उदारीकरण को सम्मिलित कर लिया गया था और फिर सरकारी नियंत्रण लगातार कम होता चला गया। वर्ष 1975 तक भारत, चीन और वियतनाम में प्रति व्यक्ति आय लगभग बराबर थी, पर वर्ष 2000 के बाद से चीन और वियतनाम में प्रति व्यक्ति आय 35 से 50 फीसद के बराबर बढ़ी।
आज चीन में प्रति व्यक्ति आय भारत से ढाई गुना अधिक है। इसका कारण भारत में आर्थिक नीतियों में उदारीकरण को काफी देर से शामिल किया जाना रहा है और परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति आय भी एक समय के बाद ही बढ़ी अगर पूंजीवादी आर्थिक नीतियों से आर्थिक विकास तेजी से बढ़ता है, तो फिर इसका आमजन में विरोध क्यों हैं? इसके पीछे कुछ संभावित कारणों में से एक, सरकारों द्वारा निजी क्षेत्र को बहुत हद तक संरक्षित करना है। अमेरिका के संदर्भ में इसे कई दफा दिवालिया होने वाली कंपनियों को बचाने से समझा जा सकता है, वहीं भारत के संदर्भ में इसे व्यक्तियों की वित्तीय आय पर लगने वाला कर तुलनात्मक रूप से कंपनियों के मुनाफे पर लगने वाले कर से बहुत अधिक है। इसकी पुष्टि आर्थिक आंकड़ों से हो जाती है। वर्ष 2023- 24 में भारतीय कंपनियों से मिलने वाले कर की राशि 9.3 लाख करोड़ थी, जो भारतीय अर्थव्यवस्था के जीडीपी का 3.11 फीसद था। वहीं व्यक्तिगत आयकर का संग्रह 10.22 लाख करोड़ के आसपास था, जो जीडीपी का 3.45 फीसद था। क्या इसका अर्थ है कि भारतीय कंपनियां कम मुनाफा कमा रही हैं, इसलिए वे कम कर का भुगतान कर रही है? यह एक गलत अवधारणा है। एक ताजा आंकड़े के मुताबिक तकरीबन पैंतीस हजार भारतीय कंपनियों का कर से पूर्व का पूर्व का मुनाफा पिछले पांच वर्षों में करीबन 144 फीसद बढ़ा है।
इसके अलावा स्टक मार्केट में सूचीबद्ध पांच हजार कंपनियों के मुनाफे में पिछले पांच वर्षों में 186 फीसद की बढ़ोतरी हुई, जबकि उनके द्वारा दिया गया कर 35 फीसद ही बढ़ा है। कंपनियों के कर संग्रह में में जारी इस कमी के चलते ही पिछले पांच वर्षों में यह जीडीपी के 3.51 फीसद से गिर कर 3.11 फीसद पर आ गया है। वहीं व्यक्तिगत कर संग्रह 2.44 से बढ़कर 3.45 फीसद हो गया है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है fen 1991 के आर्थिक सुधारों के दौर में कंपनियों पर कर की दर 45 फीसद थी, जो वर्तमान समय में घट कर मात्र आधी रह गई है। हालांकि, इसके पीछे का मुख्य कारण भारतीय कंपनियों के उत्पादों को वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धात्मक कीमत पर लाना है। भारत के संदर्भ में आर्थिक नीतियों में फेरबदल को सदैव लोकतंत्र की छाया में देख कर चलना जरूरी है। मगर भारत ने कभी पूर्ण रूप से पूंजीवाद के प्रारूप को नहीं अपनाया। इसने हमेशा कल्याणकारी राज्य की छवि को बरकरार रखने की कोशिश की है। इस पक्ष पर 'वर्तमान राजनीति पारस्परिक विरोधाभास बहुत अधिक है, जिससे आमजन निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहा कि सरकार की नीतियां उनके विकास के लिए हैं या उन्हें लुभाने का एक तरीका।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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