अपने आसपास जो जैव विविधता हम देखते हैं उसे तैयार होने में दो से तीन अरब वर्ष लगे हैं। अत्यधिक उद्योगीकरण, उपभोक्तावाद, तीव्र अनियोजित कृषि एवं शहरीकरण से पारिस्थितिकी तंत्र की सर्वाधिक नुकसान पहुंचा है। यह जलवायु में नकारात्मक परिवर्तन के रूप में हमारे सामने है। जैव विविधता का संरक्षण इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि समस्त जीव- जंतु, पादप, सरीसृप एक-दूसरे पर निर्भर हैं। विभिन्न प्रजातियों की आपसे सहजीविता प्रकृति के संतुलन के लिए जरूरी है। जैव विविधता की संपन्नता के लिए विख्यात कोलंबिया के कैली शहर में इन दिनों संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन चल रहा है। एक नवंबर तक चलने वाले इस आयोजन में 190 देशों के 12 हजार से अधिक प्रतिनिधि हिस्सा ले रहे हैं। जैव विविधता के संरक्षण की दिशा में 2022 में कनाडा के मांट्रियल में अपनाया गया कुनमिंग मांट्रियल वैश्विक जैव विविधता ढांचा (जीबीएफ) एक बड़ी उपलब्धि है। कोलंबिया में इस संधि के क्रियान्वयन की समीक्षा की जा रही है। कुनमिंग मांट्रियल वैश्विक जैव विविधता ढांचे में 23 लक्ष्य निर्धारित किए गए थे। इनमें 30 प्रतिशत जमीन और समुद्री क्षेत्र की जैव विविधता की सुरक्षित करना तथा प्लास्टिक जनित प्रदूषण पर रोक सबसे प्रमुख हैं। जीबीएफ में ऐसे सब्सिडी पर रोक लगाने का भी उल्लेख है, जो पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ावा देती हो पर्यावरण संरक्षण की दिशा में यह वैश्विक वार्ता इसलिए प्रासंगिक हो गई है, क्योंकि यहां बनी सहमति का सीधा असर अजरबैजान में प्रस्तावित संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक जलवायु सम्मेलन (कोप-29) में दिखेगा।
प्रजातियों से बचेगी जैव विविधता जलवायु परिवर्तन भूमि और समुद्र में प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट पैदा करता है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से तापमान बढ़ने के साथ यह संकट और भी बढ़ जाता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसर जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में प्रजातियों की संख्या में एक हजार गुना वृद्धि हो रही है यह मानव इतिहास में किसी भी अन्य समय की तुलना में कहीं अधिक है। वहीं दूसरी और अगले कुछ दशकों में दस लाख प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा भी है। जंगल की आग, चरम मौसमी घटनाएं और आक्रामक कोट और बीमारियां जलवायु परिवर्तन से संबंधित अन्य खतरे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि कुछ प्रजातियां स्थानांतरित होकर जीवित रह पाएंगे, पर अन्य नहीं जलवायु विविधता के नष्ट होने से मत्स्य पालन, फसलें और पशुधन के खत्म होने का खतरा रहता है। इससे उनकी उत्पादकता कम होती है। समुद्र के अधिक अम्लीय होने से अरबों लोगों को भोजन देने वाले समुद्री संसाधन सिकुड़ रहे हैं। कई आर्कटिक क्षेत्रों में बर्फ के आवरण में परिवर्तन ने पशुपालन, शिकार और मछली पकड़ने से खाद्य आपूर्ति को बाधित किया है। गर्मी से घस के मैदन और पानी कम हो सकते हैं, जिससे फसल की पैदावार कम हो सकती है और पशुधन प्रभावित हो सकता है। स्थानीय समुदाय को प्राथमिकता जैव विविधता के संरक्षण के लिए जितनी भी नीतियां बनाई जाती हैं, उनका क्रियान्वयन स्थानीय समुदायों की भागीदारी पर निर्भर करता है। स्थानीय समुदाय उस क्षेत्र के पारिस्थितकी तंत्र एवं जलवायु से परिचित होते हैं। ऐसे में उनका पारंपरिक ज्ञान जैव विविधता के संरक्षण में उपयोगी साबित होता है।
भारत आज पर्यावरण अनुकूल पहल के नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरा है तो इसके पीछे समुदायों में पर्यावरण को लेकर जागरूकता एवं प्राचीन परंपराएं हैं। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार भारत में जंगली पौधें की 45,000 प्रजातियां हैं। इनमें से 7,500 प्रजातियां स्वदेशी स्वास्थ्य प्रथाओं के लिए औषधीय उपयोग में हैं। लगभग 3,900 पौधों की प्रजातियों का उपयोग आदिवासी भोजन के रूप में करते हैं। इनके अलावा कई पौधों का उपयोग लकड़ी, भवन निर्माण सामग्री के रूप में किया जाता है। 700 प्रजातियां नैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सैंदर्य और सामाजिक दृष्टिकोण से सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। भारत ने दिखाई राह जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र के शिखर सम्मेलन में भारत के पास साझा करने के लिए बहुत कुछ है। भारत ने नीतियों, नवाचार, सामाजिक उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग तंत्र विकसित करने की वकालत की है। हमारे पास विश्व के कुल भूमिक्षेत्र का 2.4 प्रतिशत है, लेकिन हमारी वैश्विक जातीय विविधता 8.1 प्रतिशत है। भारत सरकार ने जैव विविधता के संरक्षण के लिए कई कदम उठाए हैं। वन्यजीव संरक्षण की दिशा में 1972 में पारित वन्यजीव संरक्षण अधिनियम जहां मील का पत्थर साबित हुआ है, वहीं अन्य नीतिगत उपक्रमों का सकारात्मक परिणाम देखने को मिला है। इनमें प्रोजेक्ट टाइगर, प्रोजेक्ट एलीफेंट प्रोजेक्ट डाल्फिन प्रमुख नीतिगत पहल हैं। 20वीं सदी के मध्य तक देश में शिकार, मानवीय गतिविधियों एवं पर्यावास की कमी के कारण बाघों की संख्या में निरंतर गिरावट आ रही थी, लेकिन अब भारत विश्व के 70 प्रतिशत से अधिक बाघ का निवास है। भारत अपने संपूर्ण जीव- जंतुओं की सूची तैयार करने वाला विश्व का पहला देश है। इस सूची में कुल एक लाख चार हजार 561 प्रजातियां हैं। समुद्री जैव विविधता संरक्षण केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार से परे क्षेत्रों में समुद्री जैव विविधता के संरक्षण और निरंतर उपयोग की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया है। भारत ने सितंबर 2024 में राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार से परे जैव विविधता समझौते (बीबीएनजे) पर हस्ताक्षर किया है। इसे हाईसीज संधि के नाम से भी जाना जाता है 100 से अधिक देश इस पर हस्तारक्ष कर चुके हैं। बीबीएनजे संधि समुद्री संसाधनों के दौहन में समावेशी पद्धतियों को प्रोत्साहित करती है। इसपर हस्ताक्षर करने वाले देश को उच्च समुद्री क्षेत्र से हासिल किए गए संसाधनों का समुचित वितरण करना होगा। यह संधि समुद्री संरक्षित क्षेत्र, समुद्री प्रौद्योगिकी, दक्षता संवर्धन, पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन जैसे चार क्षेत्रों के लिए नियम बनाती है। बीबीएनजे समझौता संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून सम्मेलन के तहत सदस्य देश पर अनिवार्य रूप से लागू होता है। समुद्री सीमा में नेविगेशन, ओवरफ्लाइट पनडुब्बी संचलन और पाइपलाइन बिछाने आदि कार्य सभी के लिए खुले होते हैं। कुलमिलाकर जैव विविधता का संरक्षण एवं जलवायु परिवर्तन एक-दूसरे से संबंधित हैं। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का पूर्वानुमान लगाकर ही जैव विविधता संरक्षण संभव है। जैव विविधता के समक्ष संकट की सबसे बड़ी वजह आक्रामक उपभोक्तावादी प्रवृत्ति है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई एक पेड़ काटा जाता है तो न जाने कितने सूक्ष्म जीवों का पर्यावास नष्ट होता है। जैव विविधता नष्ट होने से आनुवंशिक विविधताएं खत्म होती हैं।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट