अन्नपूर्णा का अनादर
‘बढ़ती भुखमरी और भोजन की बर्बादी’ (लेख, 3 नवंबर) एकाग्रचित्त होकर पढ़ा। वर्णित आंकड़े विश्व बिरादरी के मानवीय मंच पर चिंता की लंबी लकीरें उकेरती हैं। लेख का निष्कर्ष चिंताजनक है
Written by जनसत्ता; 'बढ़ती भुखमरी और भोजन की बर्बादी' (लेख, 3 नवंबर) एकाग्रचित्त होकर पढ़ा। वर्णित आंकड़े विश्व बिरादरी के मानवीय मंच पर चिंता की लंबी लकीरें उकेरती हैं। लेख का निष्कर्ष चिंताजनक है कि प्रत्येक दिन जितनी मात्रा में भोजन नष्ट हो रहा है, उससे पूरे संसार में 83 करोड़ लोग जो भूखे सो रहे हैं, उनमें कमी करते हुए उनकी आंखों में सेवा दान की नमी भरी जा सकती है, बशर्ते कि दिल से ठान लिया जाए कि इस नुकसान से हम बचने की हर कोशिश करेंगे। संयुक्त राष्ट्र के अभियान 'शून्य भुखमरी' (जीरो हंगर) में भारत अथक रूप से प्रयासरत है, लेकिन इस संत्रास से मुक्ति के लिए और यत्न करने की जरूरत भी है।
विषय को गहराई से देखा जाए तो डरावनी तस्वीर सामने आती है कि भोजन बर्बादी का मुख्य केंद्र आज नगर और महानगर बने हुए हैं। सामूहिक समारोह में भोजन अधिक नष्ट हो रहे हैं, जबकि शहरों के शुद्ध घरेलू आयोजन में इसकी मात्रा कम है। ग्रामीण क्षेत्रों में वैवाहिक या अन्य समारोह में भोजन की बर्बादी लगभग शून्य इसलिए है कि हमारे पुरखों ने भोज में 'पंगत' की सामाजिक एकता के परिप्रेक्ष्य में जो परंपरा लागू की थी, वह आज भी गतिशील है।
ग्रामीण आगंतुक अपनी पत्तल पर उतने ही भोज्य सामग्री लेते हैं, जितनी उनकी खुराक है। सामूहिक भोज में निमंत्रित लोग कभी-कभी आग्रह और उमंग में देखा-देखी कुछ स्वादिष्ट व्यंजनों की मात्रा अधिक जरूर लेते हैं, लेकिन वे अंत में पत्तल पर भोजन का एक दाना भी नहीं छोड़ते।
नगरों में स्वरुचि भोज के आयोजन में अक्सर यह देखा जाता है कि लंबी लाइन से बचने के डर से लोग अपने प्लेट में पहली बार में ही भोजन की मात्रा इतना अधिक रख लेते हैं कि अंत में कुछ मात्रा प्लेट में छूट जाती है। भोज में आगंतुकों की संख्या के आकलन के आधार पर अगर भोजन निर्मित हो और उसे परोसने में सावधानी बरती जाए तो बर्बादी के संताप से मुक्ति मिल सकेगी।
हमारे नगरीय संस्कृति में रचे-बसे सभ्रांत महानुभाव जो अपनी आंखों के सामने भोजन को कूड़ेदान में डालते समय संवेदनशील नहीं होते, उन्हें एक बार किसी गांव के भोज में भाग लेकर आत्मपरीक्षण करना चाहिए। लेखक ने सही चित्रण किया है कि अन्न के अपमान से लक्ष्मी अपना वास नहीं करती है।
भोजन नष्ट करने वाले जरा एक बार हृदय से सोच लें कि अगर उन्हें एक शाम भी भूखे पेट सोने की नौबत आए तो उनकी क्या हालत होगी। अन्न से भोजन बनते हैं, जबकि इसकी बर्बादी सिर्फ अन्न की नहीं, बल्कि अन्न को तैयार करने में कृषक के सपने, श्रम, साधन, खेत, उर्वरक, पूंजी सहित सभी पक्षों को नष्ट करने का एक अनैतिक और अमानवीय कृत्य है।