कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष का पार्टी नेताओं से विवाद और असहमति का लंबा इतिहास है। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी-सभी के राजनीतिक जीवन में किसी न किसी समय अपने साथी पार्टी नेताओं से विवाद और असहमति की स्थिति आई है। लेकिन वे न सिर्फ बेहद प्रतिष्ठित थे, जैसे कि गांधी जी, बल्कि उनमें भीड़ को अपनी ओर खींचने की जबर्दस्त क्षमता भी थी, जैसे कि इंदिरा, राजीव और सोनिया गांधी। राहुल गांधी में इनमें से कोई भी क्षमता नहीं है। चुनावी सफलता और जन समर्थन के अभाव में राहुल हर मोर्चे पर एक त्रासद चरित्र लगते हैं।
आज के कांग्रेस में निरंतर अविश्वास, संदेह और संवाद के अभाव का माहौल है। अभी तक इस संबंध में यह बात स्पष्ट नहीं की गई है कि मई, 2019 में भाजपा के लोकसभा चुनाव जीतने की पृष्ठभूमि में राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का जो पद छोड़ा था, वह जिम्मेदारी दोबारा लेने में वह रुचि क्यों नहीं दिखा रहे। जब वह अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी लेने में रुचि नहीं दिखा रहे, तो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को दिल्ली बुलाने से लेकर पंजाब में पहले दलित मुख्यमंत्री के रूप में चरणजीत सिंह चन्नी के नाम पर मोहर लगाने जैसे तमाम फैसले वह क्यों कर रहे हैं? कांग्रेस ने बघेल और चन्नी के साथ अंतरिम पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ तस्वीर खिंचवाने की जरूरत भी नहीं समझी। कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी के कांग्रेस में आने पर भी यही देखा गया।
ऐसा कहा जा रहा है कि नया कांग्रेस बनाने और पार्टी में भारी बदलाव लाने के बाद राहुल गांधी अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी फिर से संभालने पर विचार कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में, वह कांग्रेस में लीक से हटकर फैसले कर रहे हैं। इसका स्वागत करने के बावजूद कुछ सवाल तो रह ही जाते हैं। जैसे, पंजाब में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के तुरंत बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपने कई इंटरव्यू में जब अपने प्रतिद्वंद्वी नवजोत सिंह सिद्धू को 'राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा' बताया, तब राहुल गांधी क्या कर रहे थे? कैप्टन ने यह भी कहा कि सिद्धू के अपने क्रिकेटर दोस्त इमरान खान, आईएसआई के प्रमुख और सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा से नजदीकी रिश्ता है, इसलिए वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पर इतना गंभीर आरोप एक विधायक ने लगाया। या तो राहुल गांधी कैप्टन अमरिंदर सिंह को अपने आरोप साबित करने के लिए कहते और सिद्धू को बर्खास्त करते या फिर पंजाब चुनाव से पहले कांग्रेस की छवि मटियामेट करने के कारण वह कैप्टन को कारण बताओ नोटिस जारी करते। इसके बजाय राहुल और कांग्रेस ने चुप्पी साध ली। अमरिंदर सिंह से सीधे जवाब तलब न कर पाना महंगा साबित हुआ, क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल से मुलाकात करते देखा गया। राष्ट्रीय सुरक्षा का यह संवेदनशील मुद्दा अब चुनाव में कांग्रेस की संभावनाएं कम कर सकता है, और पंजाब से बाहर यह उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मणिपुर और गोवा के लिए भी उतना ही सच है।
कैप्टन अमरिंदर सिंह का पार्टी छोड़ने का फैसला कांग्रेसी नेताओं की सतही निष्ठा के बारे में बताता है। हालत यह है कि जिस भी कांग्रेसी को नेतृत्व के रवैये से ठेस लगती है, वह पार्टी छोड़कर भाजपा या दूसरी पार्टी में चला जाता है। हालांकि पंजाब की हालत देखकर अब कांग्रेस नेतृत्व ने छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों के प्रति नर्म रुख अपनाया है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए वरिष्ठ पर्यवेक्षक नियुक्त किया जाना इसका प्रमाण है। इसके अलावा सचिन पायलट को राष्ट्रीय स्तर पर जिम्मेदारी देने की बात भी चल रही है, जिससे कि राजस्थान में गहलोत-पायलट की तकरार टाली जा सके। पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चल रही कांग्रेस की नौटंकी से अलग भी जी-23 नाम से असहमत कांग्रेसियों का एक समूह है। इस समूह में शामिल लोग ज्यादातर वे हैं, जो वर्ष 2004 से 2014 के बीच यूपीए की सरकार के दौर में बेहद प्रभावशाली थे। वे अब भी पद और ताकत की तलाश में हैं, जो कि नहीं है।
राजीव सातव की मृत्यु के कारण जब महाराष्ट्र में राज्यसभा की एक सीट खाली हुई, तब जी-23 समूह के दो सदस्यों गुलाम नबी आजाद और मुकुल वासनिक के अलावा राजीव शुक्ला, संजय निरुपम, मिलिंद देवड़ा, पृथ्वीराज चव्हाण जैसे नेताओं ने उसे हासिल करने की काफी कोशिश की, लेकिन नेतृत्व ने रजनी पाटिल को वह सीट देकर उपकृत किया। इस तरह की घटनाओं से अनुभवी कांग्रेसी नेताओं का क्षोभ बढ़ता है। निजी बातचीत में अनेक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रियंका चतुर्वेदी, सुष्मिता देव, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और भुवनेश्वर कलिता जैसों से ईर्ष्या करते हैं, जिन्हें कांग्रेस छोड़ने के बाद राज्यसभा की सीट या मंत्री पद मिले।
राहुल गांधी न केवल नेतृत्व के मोर्चे पर विफल साबित हुए हैं, बल्कि वह पार्टी नेताओं को संरक्षण देने में भी अक्षम हैं। सत्रह साल से सक्रिय राजनीति में होते हुए और गांधी होने के बावजूद वह खुद को कांग्रेस पार्टी के लायक साबित नहीं कर पाए हैं।