देवगन बनाम सुदीप : बॉलीवुड जिस हिंदी के लिए तर्क दे रहा है, उसे वो खुद कितना सम्मान देता है

देवगन बनाम सुदीप

Update: 2022-04-30 07:25 GMT
संदीपन शर्मा |  
सामन्यत:, प्रात:स्मरणीय अग्रज अजय देवगन (Ajay Devgn) को अपनी हिंदी (Hindi) सुभगता को इतने आवेग, अदम्य साहस एवं विश्वास के साथ सम्पूर्ण ब्रह्मांड के समक्ष प्रतिपादित करते देख कर हृदय प्रफुल्लित हो उठता, मनमयूर भावविभोर हो जाता. परंतु, समय, देश एवं काल को संदर्भ में रखते हुए, उनकी मन:स्थिति – जो स्वनामधन्य महाशय के विचारों से समाज के समक्ष यदाकदा परिलक्षित होती रहती है – की मीमांसा के पश्चात, किंचित किंकर्तव्यमूढ़ होने का आभास हृदय को उद्वेलित कर रहा है. मन प्रफुल्ल नहीं उद्विग्न है. अग्रज अजय की आज्ञा और आशीर्वाद से इस विवेचना पर तनिक काली मसी व्यय करने का साहस कर रहा हूं, तो ऐसा है महामान्य…
अजय देवगन का हिंदी के लिए प्यार (भले ही अंग्रेजी में अपने उपनाम को और तरीके से लिखते हों) और जुनून काबिले तारीफ है, खासकर जब वे दूसरों को जुबान केसरी (राजनीति, पैसा, उर्दू और बुराई का एक सुविधाजनक मिश्रण) बोलने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. जहां पैसा होता है, वहीं सभी अपनी आवाज भी उठाते हैं और अजय देवगन भी ऐसा ही कर रहे हैं. एक ऐसे अभिनेता जिसने अपना पूरा जीवन और समय हिंदी सिनेमा को दिया है को किसी अन्य भाषा में जन, मन, देवगन गाने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती. ऐसे में हिंदी के पक्ष में बोलने के लिए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए.
हिंदी राष्ट्र भाषा नहीं है
लेकिन हिंदी के समर्थन में उन्होंने जो कुछ तर्क रखे हैं वो उनकी कुछ फिल्मों की तरह ही अतिशयोक्ति भरे भाषाई और एक्शन दृश्यों जैसे अतार्किक हैं. और कुछ उनके अधिक मांसपेशियों और कम दिमाग वाले व्यक्ति की भूमिका जैसे हास्यास्पद भी. पहले हम मूल बातें जान लेते हैं. पहली तो ये कि हिंदी भारत में बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है और भारतीय संविधान के अनुसार कम से कम यह भारत की राष्ट्र भाषा तो नहीं ही है. दूसरी ये कि तराना-ए-हिंद में इकबाल ने लिखा है हिंदी हैं हम, वतन है हिंदुस्तान हमारा. इसका मतलब यह है कि हिंदी शब्द का इस्तेमाल मूल रूप से सिंधु नदी के उस पार रहने वाले लोगों की पहचान के लिए किया गया था. अपने मूल रूप में हिंदी हमारी पहचान थी, भाषा नहीं.
उस हिंदुस्तान के लोग कई भाषाएं बोलते थे और आज भी बोलते हैं. लेकिन जो हिंदी हम आज बोलते हैं, वह भारतीयों की मूल संस्कृति में नहीं थी. अंग्रेजों ने इस हिंदी का स्वरूप उर्दू और संस्कृत को मिलाकर तैयार किया था. इसलिए, हिंदी को मुख्य रूप से अंग्रेजों की रचना कहा जा सकता है और, इस वजह से इसको लेकर इतना कट्टर होने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, जब तक कि आप 'मैकाले की संतानों' को शाब्दिक रूप से नहीं लेना चाहेंगे. तीसरा ये कि जिसने भी भाषाओं और उनकी उत्पत्ति का अध्ययन किया है, वह आपको बता देगा कि हिंदी भी अंग्रेजी, जर्मन, फारसी और फ्रेंच जैसी भाषाओं की जड़ों से विकसित हुई है. हिंदी भी प्रोटो-इंडो-यूरोपीय परिवार का हिस्सा है और इस तरह इसमें कुछ भी स्वदेशी नहीं है.
उर्दू, फारसी, पंजाबी और बांग्ला – ये सभी भाषाएं एक ही समय के दौरान एक ही मूल से उत्पन्न हुई हैं और विविधता में एकता की यही छवि भारतीय सिनेमा में पर्दे – खासतौर पर अजय देवगन और उनके सहयोगियों द्वारा बनाई गई बॉलीवुड फिल्मों में – भी नजर आती है. इन अधिकांश फिल्मों में हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी और उर्दू का मिश्रण सुनाई देता है. हालांकि अजय देवगन की फिल्मों में इस मिश्रण में मराठी भी शामिल हो जाती है. भारतीय सिनेमा के शुरूआती दौर में संवादों और गीतों – दोनों में ही फारसी और उर्दू से बहुत शब्द लिए जाते थे. हालांकि जैसे-जैसे सिनेमा का विकास हुआ, पंजाबी भाषा का प्रयोग इसमें बढ़ता चला गया. और अगर आप आजकल के गाने सुनेंगे तो जान जाएंगे कि हिंदी से इनका कोई लेना देना ही नहीं है.
अजय देवगन की बात तर्कहीन और त्रुटिपूर्ण लगती है
मुद्दा यह है कि अजय देवगन ब्रैंड का सिनेमा एक भाषा की बजाय भारत की विविधता का प्रतिनिधित्व करता है. और यही कारण है कि जब बॉलीवुड इस तरह हिंदी के राष्ट्रभाषा होने के पक्ष में बोलता है तो ये तर्कहीन और त्रुटिपूर्ण लगता है. आज की हिंदी का स्वरूप दरअसल कई भाषाओं के मेल और तोड़मरोड़ से बना है और यही वजह है कि ये भारतीयों की एक बड़ी संख्या की सामान्य भाषा या लोक भाषा के तौर पर उभरी है. गैर-हिंदी सिनेमा पर निशाना साधते हुए अजय देवगन ने तर्क दिया कि यदि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है तो अन्य लोग उस भाषा में फिल्मों को डब क्यों करते हैं. इसका संक्षिप्त उत्तर यही है कि हर कोई जुबान केसरी यानी पैसे की भाषा से प्यार करता है.
सिनेमा (और अभिनेताओं) का भी उद्देश्य पैसा कमाना है और यह कई तरीके से हो सकता है. इनमें से दो तरीके तो बॉलीवुड के देवगन, खान और कुमार खासतौर पर जानते हैं. एक तो ये कि वे सरोगेट विज्ञापनों में दिखाई दें (और बाद में जब पब्लिक इस पर हो-हल्ला करे तो खुद को इससे अलग कर लें). दूसरा ये कि अन्य भाषाओं की हिट फिल्मों का रीमेक बना लें (और बाद में उनका अपमान करें). यही वजह है कि अजय देवगन को दृश्यम में मोहनलाल की भूमिका को दोबारा करने या दक्षिण में बनी फिल्मों के अधिकार खरीदने या मुख्य रूप से तेलुगु दर्शकों के लिए बनाई गई फिल्मों के लिए कैमियो करने में कोई हिचक नहीं है (हालांकि इसमें कुछ भी गलत नहीं है). वैसे एक सवाल ये भी है कि क्या देवगन ने आरआरआर फिल्म के अपने डायलॉग को अन्य भाषाओं में डब नहीं किया था?
इसलिए, गैर-हिंग्लिश-पिंग्लिश सिनेमा को बदनाम करने की बजाय, बॉलीवुड को भारत की समृद्ध विविधता, विचारों, संस्कृतियों, भाषाओं और साहित्य का सम्मान करना चाहिए. और अगर वे ऐसा नहीं कर पाते हैं तो इस सवाल पर उनको विचार करना चाहिए – आखिर हिंदी में डब करके रिलीज की जा रही फिल्मों को हिंदी बेल्ट में इतनी सफलता क्यों मिल रही है जबकि दूसरी भाषाओं में डब करके रिलीज की गई हिंदी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाती हैं. तमिल, तेलुगु और कन्नड़ फिल्में कमाई के आंकड़ों में भाषा की सीमाओं को क्यों लांघ पा रही हैं जबकि बॉलीवुड स्पष्ट रूप से ऐसा करने में असफल रहा है.
सच हमेशा कहना चाहिए और हिंदी वादियों के साथ समस्या यह है कि वे अपनी भाषा को लेकर पाखंड करते हैं. व्यावसायिक और राजनीतिक लाभ के लिए वे हिंदी का उपयोग तो करते हैं लेकिन इसके विकास में अपना कोई योगदान नहीं देते. साहित्य की भाषा के रूप में देखा जाए तो भारतीय अभिजात वर्ग में हिंदी लिखने-पढ़ने वाले बहुत कम लोग हैं. यह हमारे समय की नई संस्कृत है जिसको लेकर हर कोई यही चाहता है कि हमारा बच्चा तो नहीं लेकिन पड़ोसी का बच्चा इसे जरूर पढ़े. अपने बच्चे के लिए तो स्कूल में अंग्रेजी या फ्रेंच ही पसंदीदा विषयों में हैं. देखा जाए तो विकल्प मिलने पर बॉलीवुड के स्टार किड भी उस भाषा में संघर्ष करने की बजाय जिसके साथ वे बड़े नहीं हुए हैं, हॉलीवुड में ही अपनी किस्मत आजमाना पसंद करेंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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