सीओपी26 में विकसित देश विकासशील देशों को जलवायु वित्त देने पर ध्यान दें
जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव पूरी धरती पर स्पष्ट होते जा रहे हैं
आरती खोसला । जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव पूरी धरती पर स्पष्ट होते जा रहे हैं। पिछले 50 साल में चरम मौसम की घटनाएं पांच गुना बढ़ी हैं। ग्लोबल वार्मिंग के विनाशकारी स्तरों तक पहुंचने से बचने और पेरिस समझौते के लक्ष्य पूरे करने के लिए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को अगले दस सालों में आधे से भी कम करना होगा। लेकिन मौजूदा रफ़्तार से तो हमें कार्बन मुक्त होने में 150 से अधिक साल लग जाएंगे। लेकिन ये भी सच है कि साफ ऊर्जा से लेकर बैटरी वाहनों तक जहां चुनौतियां हैं, वहीं कुछ उम्मीद भी बंध रही है।
ब्रिटेन के ग्लासगो में यूएन के जलवायु परिवर्तन पर सीओपी26 नाम का शिखर सम्मेलन चल रहा है। अब सभी विश्व नेताओं को ईमानदारी से ग्लोबल वॉर्मिंग के खिलाफ कमर कसनी होगी जिसकी अपील दुनिया के 200 शोध पत्रों ने की है। सीओपी26 में भारत के लिए एक सफल परिणाम, अमेरिका, ब्रिटेन और इजराइल जैसे देशों के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों के विकास को संतुलित करने की क्षमता पर टिका है।
यूके और भारत के बीच लंबी साझेदारी है और जलवायु परिवर्तन से निपटने के संयुक्त प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिए अभी कुछ समय पहले ही प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नए साझा रोडमैप पर हस्ताक्षर किए। जिसमें वैश्विक तापमान में वृद्धि को सीमित करने और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के लिए सबसे कमजोर समुदायों को सहयोग करने के उपाय शामिल हैं।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हाल के दिनों में अन्य देशों के साथ कई द्विपक्षीय बैठकें की हैं। 2018 के कार्बन उत्सर्जन डेटा के आंकड़ों के अनुसार, चीन 10.06 गीगाटन के साथ इस सूची में सबसे ऊपर है। अमेरिका ने 5.41 गीगाटन कार्बन उत्सर्जित किया और भारत ने 2.65 गीगाटन उत्सर्जित किया। भारत ऐतिहासिक रूप से कुल उत्सर्जन के स्तर पर 4.5 फीसदी पर है। चीन प्रति व्यक्ति 8.4 टन कार्बन उत्सर्जन करता है, जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा 18.6 टन प्रति व्यक्ति है।
वहीं, यूरोपीय संघ में 7.16 टन प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन है। जबकि ऐतिहासिक उत्सर्जन व सीबीडीआर की बहस सही है, इसे वर्तमान परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए कुछ लचीलेपन की आवश्यकता है। जब तक तत्काल व कठोर उपाय नहीं होंगे, तब तक 1.5 डिग्री तापमान वृद्धि को पार करने की आशंका रहेगी। इसका मतलब है कि विकासशील या विकसित सभी देशों को अपने कार्बन उत्सर्जन को बिल्कुल कम करना चाहिए।
रिन्युब्ल एनर्जी प्रौद्योगिकी, बैटरी भंडारण, हाइड्रोजन में प्रगति को देखते हुए, विकसित देशों की तुलना में बेहतर विकासात्मक विकल्प बनाना बहुत संभव है। लैंसेट काउंटडाउन रिपोर्ट 2021 की मानें तो भारत उन पांच देशों में से एक है, जहां पिछले 5 वर्षों में अतिसंवेदनशील आबादी सबसे अधिक खतरे पर हैं और ये खतरा आगे और बढ़ रहा है। भारत में बिजली उत्पादन अभी भी कोयले पर अत्यधिक निर्भर है, जिसने 2018 में सभी बिजली उत्पादन में 73 फीसदी का योगदान दिया।
2019 में, मानवजनित पीएम 2.5 के कारण 9,07,000 से अधिक मौतें हुईं, जो 2015 की तुलना में 8 फीसदी अधिक है। यह भारत में कोयले से प्राप्त पीएम2.5 से संबंधित मौतों की संख्या में 9 फीसदी की वृद्धि को दर्शाता है। हालांकि अक्षय ऊर्जा का उपयोग बढ़ रहा है, लेकिन 2019 में कुल बिजली उत्पादन में इनका योगदान केवल 8 फीसदी था। स्वच्छ ईंधन और खाना पकाने की तकनीक में बदलाव करके भारत ने इनडोर वायु प्रदूषण को कम करने में काफी प्रगति की है।
भारत का तर्क है कि कार्बन स्पेस के चरम पर पहुंचने से पहले उसके पास 12-15 साल और हैं। हालांकि, मौजूदा तकनीक हमें विकास में मजबूत प्रगति करने में सक्षम बनाती है, जबकि दो दशक पहले की तुलना में बहुत कम कार्बन उत्सर्जित करती है। यह विकास लक्ष्यों से समझौता किए बिना कार्बन उत्सर्जन को कम करने की अनुमति देता है। हालांकि, इसके लिए वित्त की जरूरत है।
इस सीओपी26 में, विकसित देश अपनी प्रतिबद्धताओं को बढ़ाने के लिए विकासशील देशों को आवश्यक जलवायु वित्त उपलब्ध कराने के मामले में उनपर विश्वास के कमी का जवाब कैसे देते हैं, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के मुद्दे पर अस्पष्टता, रणनीति की कमी व वादाखिलाफी का दौर पहले ही लंबा खिंच चुका है। हम डेढ़ डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी के बहुत नजदीक पहुंच चुके हैं और इससे देशों की मंशा को लक्षित किया जा सकता है।
ऐसे में हम गाड़ी को 2023 तक पटरी पर कैसे लाएं। ब्राजील, मेक्सिको, ऑस्ट्रेलिया और रूस दुखद रूप से इस मामले में काफी पीछे हैं। हालांकि अंतिम समय पर उम्मीद की किरण नजर आ रही है। वह है चीन द्वारा उस कार्य योजना को सामने रखा जाना, जिसके जरिए वह 2060 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने का मंसूबा बना रहा है। भारत के पास अक्षय ऊर्जा उत्पादन का अपना लक्ष्य हासिल करने की पूरी क्षमता है।
नाइजीरिया, दक्षिण कोरिया और सऊदी अरब इस मामले में आगे जरूर आए हैं लेकिन उनमें से कोई भी ऐसे कदम नहीं उठा रहा है, जिनसे वैश्विक तापमान में वृद्धि को डेढ़ डिग्री की सीलिंग से नीचे रखा जा सके। दुनिया में हर जगह जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल छोड़कर, अक्षय ऊर्जा अपनाकर अर्थव्यवस्था को बदलना कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं है। इसके लिए ईमानदारी, गंभीरता और स्पष्टता जरूरी है।