मध्य प्रदेश में लोकतन्त्र जीता

भारत के जीवन्त और ऊर्जावान लोकतन्त्र का ही यह प्रमाण है कि मध्य प्रदेश के नगर निकाय व पंचायती चुनावों के परिणामों पर राज्य की दोनों प्रमुख राजनैतिक पार्टियां कांग्रेस व भाजपा जश्न मना रही हैं

Update: 2022-07-19 03:14 GMT

आदित्य चोपड़ा: भारत के जीवन्त और ऊर्जावान लोकतन्त्र का ही यह प्रमाण है कि मध्य प्रदेश के नगर निकाय व पंचायती चुनावों के परिणामों पर राज्य की दोनों प्रमुख राजनैतिक पार्टियां कांग्रेस व भाजपा जश्न मना रही हैं और कह रही हैं कि आम जनता ने उन्हें अपनी कृपा से नवाजा है। इस दोनों ही पार्टियों के नेता क्रमशः मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान व पूर्व मुख्यमन्त्री कमल नाथ दावा कर रहे हैं कि राज्य की जनता से मिले समर्थन से वे अभिभूत हैं और उसका धन्यवाद करते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि जहां सत्तारूढ़ भाजपा ने नगर निगमों, नगर परिषदों व सहनगरों (टाऊन एरिया) की पालिकाओं में बहुंसख्य में विजय प्राप्त की है वहीं कांग्रेस ने 54 वर्ष बाद ग्वालियर जैसी नगर निगम में मेयर या महापौर पद पर हुए प्रत्यक्ष चुनाव में भारी बहुमत से कब्जा किया है।मध्य प्रदेश में चुनाव परिणाम के पहले चरण में कुल 133 शहरी स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम आये जिनमें से लगभग एक सौ पर भाजपा ने विजय प्राप्त की परन्तु विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने भी पिछले चुनावों के मुकाबले में अपनी स्थिति इस प्रकार सुधारी कि विभिन्न नगर निकायों में पार्षदों के चुनावों में इसके सदस्यों की संख्या दुगनी हो गई और इसके हाथ में तीन महानगरों जबलपुर, ग्वालियर व छिन्दवाड़ा के महापौर पद आ गये। जबकि उज्जैन व बुरहानपुर में इसके महापौर क्रमशः 700 व 388 मतों के बहुत कम अन्तर से हारे। सिंगरौली महानगर का महापौर पद आम आदमी पार्टी को भी मिला जिससे दिल्ली की इस पार्टी का मध्य प्रदेश में भी खाता खुल गया। लेकिन दूसरी तरफ राज्य के 800 के लगभग जो जिला पंचायतों के चुनाव हुए उनमें कांग्रेस प्रत्याशियों का बहुमत रहा। वस्तुतः इन चुनावों को अगले साल 2023 वर्ष में होने वाले विधानसभा चुनावों का 'सेमीफाइनल' माना जा रहा था। नगर निकाय और पंचायतों के इन चुनावों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विधानसभा चुनावों में इन दोनों पार्टियों के बीच कांटे का संघर्ष होने जा रहा है।कांग्रेस के पिछले चुनावों से बेहतर प्रदर्शन के लिए इस पार्टी का राज्य का नेतृत्व माना जा रहा है जो श्री कमलनाथ के हाथ में है। चुनाव प्रचार के दौरान भी असली टक्कर स्थानीय नेताओं के मैदान में होने के बावजूद असली टक्कर शिवराज सिंह चौहान व कमलनाथ के बीच में ही मानी जा रही थी क्योंकि दोनों ही अपनी-अपनी पार्टियों की तरफ से स्टार प्रचारक थे। मगर इनकी चुनाव सभाओं में एक अन्तर स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। श्री चौहान अपनी मदद के लिए बार-बार लोकप्रिय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के नाम का सहारा ले रहे थे जबकि कमलनाथ केवल अपने भरोसे ही चुनाव लड़ रहे थे। वैसे जनता की भीड़ दोनों ही नेताओं की जनसभाओं में एक-दूसरे पर भारी मानी जा रही थी। यदि हम चुनाव परिणामों का और गहराई से विश्लेषण करें तो यह तथ्य उभर कर आता है कि शहरी जनता में भाजपा की लोकप्रियता अधिक है और ग्रामीण जनता में कांग्रेस की।संपादकीय :अमृत महोत्सवः दर्द अभी जिंदा हैसंसद का मानसून सत्रसंसद का मानसून सत्रकर्ज जाल में फंसे राज्यइस दादी मां पर पूरे देश को नाज हैअपने ही ताने-बाने में उलझा ड्रैगनवैसे भी राज्य में भाजपा की शुरूआत शहरी निकायों के चुनावों से ही हुई थी और 1967 के निकाय चुनावों मे ग्वालियर शहर से इसके प्रत्याशी स्व. नारायण कृष्ण राव शेजवलकर महापौर चुने गये थे। इसके बाद उनके पुत्र भी भाजपा से ही महापौर चुने जाते रहे। परन्तु श्री नारायण राव के जमाने में ग्वालियर जनसंघ (भाजपा) का पूरे मध्य प्रदेश मे गढ़ माना जाता था क्योंकि तब ग्वालियर की पूर्व महारानी राजमाता विजया राजे सिन्धिया जनसंघ में थीं। राजमाता के जीवित रहते ग्वालियर पर कांग्रेस पिछले 54 वर्षों के दौरान कभी कब्जा नहीं जमा सकी हालांकि 1976 में इमरजेंसी के दौरान उनके सुपुत्र स्व. माधवराव सिन्धिया कांग्रेस में आ गये थे। अब माधव राव के भी सुपुत्र ज्योतिरादित्य सिन्धिया कांग्रेस से भाजपा में दो वर्ष पहले ही गये हैं और मोदी सरकार में नागरिक उड्डयन मन्त्री हैं। इसके बावजूद भाजपा का यह दुर्ग टूट गया जबकि श्री ज्योतिरादित्य ने निगम चुनावों में जमकर चुनाव प्रचार किया था। परन्तु मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान के धुआंधार चुनाव प्रचार से भाजपा को यह लाभ हुआ कि 133 नगर निकायों में से कुल 86 टाऊन एरिया पालिकाओं में से 67 पर भाजपा विजयी रही और 36 नगर पालिकाओं में से 31 में इसके वार्ड पार्षद बहुमत से जीत कर आये।दरअसल मध्य प्रदेश की राजनीति उत्तर भारत के अन्य राज्यों से बहुत हट कर रही है। इस प्रदेश की राजनीति में जातिवाद का कोई महत्व नहीं है और स्वतन्त्रता के बाद यह राज्य देश के माने हुए राजनीतिज्ञ स्व. पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र की छत्रछाया में रहा है। पंडित जी स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल के सचिव भी रहे थे। इसलिए इस राज्य में उत्तर प्रदेश व बिहार के उल्ट सैद्धान्तिक राजनीति का ही दबदबा रहा है। बेशक इस राज्य के मध्य भारत (ग्वालियर रियासत के इलाकों में) आजादी के बाद से ही राष्ट्रवादी और गांधीवादी विचारों की जंग रही है जिसकी वजह से जातिवाद कभी पनप ही नहीं सका। यह बात और है कि मध्य प्रदेश के बुन्देलखंड इलाके के क्षेत्रों में बहुजन समाज पार्टी के दलित वोट बैंक का असर हुआ था जो अब समाप्ति की ओर है। अतः सैद्धान्तिक लड़ाई का असर पालिका चुनावों तक में देखने में आता है। साथ ही इस राज्य में पूर्व राजे-महाराजाओं को भी प्रभाव रहा है जिसकी वजह से आम मतदाताओं में सामन्ती प्रभाव भी देखने को मिलता रहा है। वर्तमान में हुए पालिका व ग्राम पंचायत चुनावों में भी असली लड़ाई इन दो विचारधाराओं के बीच ही रही है हालांकि चुनाव पूरी तरह स्थानीय समस्याओं के मुद्दों पर ही लड़े गये थे। अन्त में यह निष्कर्ष निकालना गलत नहीं होगा कि मध्य प्रदेश के नगर निकाय व ग्राम पंचायतों के चुनावों में लोकतन्त्र की ही जीत हुई है।

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