झांसों, वायदों और जुमलों के बीच लोकतंत्र

इस वर्ष के पांच राज्यों के चुनाव इस मामले में महत्वपूर्ण हैं कि ये भारतीय लोकतंत्र को परिभाषित करेंगे

Update: 2022-02-18 18:19 GMT

DR. Pramod pathak

इस वर्ष के पांच राज्यों के चुनाव इस मामले में महत्वपूर्ण हैं कि ये भारतीय लोकतंत्र को परिभाषित करेंगे. उस लोकतंत्र को जिसे पाने के लिए लाखों लोगों ने कुर्बानी दी. कांग्रेस ही उस वक्त की आंदोलन की धुरी थी. आज यह सवाल खड़ा किया जा रहा है कि पिछली पीढ़ियों ने क्या किया? यह सोचना होगा कि पिछली पीढ़ियों की ही बदौलत आज हम लोकतंत्र का अमृत महोत्सव मना रहे हैं. साढ़े सात दशकों के लोकतंत्र का अमृत महोत्सव महज एक उत्सव नहीं है.
सोशल मीडिया का प्रयोग : यह 75 वर्ष का अरसा कुछ सोचने – समझने और तय करने के लिए एक मौका है लोगों के लिए. लोकतंत्र में चुनाव महत्वपूर्ण होते हैं. आज लोग चुनाव जीतने के लिए झूठ, फरेब, पिछली पीढ़ी को नीचा दिखाने जैसे प्रयास कर रहे हैं. आज चुनावों की निष्पक्षता कटघरे में है. कुत्सित प्रचार का दौर है. सोशल मीडिया द्वारा मतदाता मानस को प्रभावित करने का प्रयोग काफी हद तक सफल भी रहा है और कैंब्रिज एनालिटिका जैसे मामले इसका सटीक उदाहरण हैं. भारत में भी पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया का प्रयोग झूठ और भ्रम फैलाने में काफी प्रभावशाली साबित हो रहा है.
प्रश्न लोकतंत्र के भविष्य का : कभी इस देश में झांसी की रानी का दौर था. हम कविताओं में पढ़ते थे – खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी. आज झांसों का दौर है. झांसी की रानी की जगह झांसा के राजाओं का दौर. इन पांच राज्यों के परिणाम यह बताएंगे कि क्या मतदाता अपने वजूद को झांसों, जुमलों, वायदों, और व्यवसायिक हितों से पूरी तरह प्रेरित अधिकतर प्रचार माध्यमों के शोर शराबों में शुद्ध रख सकता है? प्रश्न सिर्फ उत्तर प्रदेश के चुनाव का नहीं है. अन्य चार राज्यों का भी नहीं. प्रश्न लोकतंत्र के भविष्य का है.
मार्केटिंग का दौर : क्या तेल साबुन बेचने वाले मार्केटिंग गुरु अब लोकतंत्र को संचालित करेंगे, यह बड़ा सवाल है. आज मतदाता की उलझनें काफी मुश्किल भरी हैं. किसे चुनना है और किसे नहीं, यह तय करना कठिन है. आज मतदाता अपने आप को कई लुभावने वस्तुओं को बेचने वाले मॉल में खड़ा पा रहा है, जिसे कई सेल्समैन अपने – अपने उत्पाद का बखान कर बरगलाने की कोशिश कर रहे हैं. एक तरफ राजनीतिक दलों के वायदों की झड़ी है और दूसरी तरफ प्रेरित मीडिया की झांसों से भरी खबरों की लड़ी. जाहिर है मतदाता का विवेक डोलता होगा. अब देखना है कि क्या मतदाता झूठ के ज्वार भाटा में बह जाता है या सही निर्णय ले पाता है.
सवाल मतदाता का : वस्तुनिष्ठ विश्लेषण से तो लगता है कि मतदाता का व्यक्तित्व अब उतना खरा नहीं रहा, जितना कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत बनाए रखने के लिए जरूरी है. वैसे प्रश्न यह है कि क्या मतदाता बदला है या राजनीतिज्ञ या फिर दोनों? क्या राजनीतिज्ञों ने मतदाता को तरह-तरह के प्रलोभन देकर कमजोर बनाया है या झूठ बोलकर ठगा है अथवा मतदाता अपने तात्कालिक लाभ को सामने रखकर कुछ भी दांव पर लगाने को तैयार है? कुछ हद तक दोनों पक्ष दोषी हैं. वाणिज्य के इस दौर में शायद यही चलन व्यावहारिक हो. वैसे एक बात समझ लेनी चाहिए कि कोशिश विक्रेता और खरीदार दोनों ही एक दूसरे को ठगने की करते हैं मगर अंत में लाभ में विक्रेता ही रहता है. लोकोक्ति है कि यदि कोई एक बार किसी को ठगे तो फ़िर ठग दोषी है. मगर यदि कोई बार-बार ठगा जाए तो फिर ठगा जाने वाला दोषी.
तुम मुझे वोट दो: इस शास्त्रीय बहस में पड़ने की बजाय राजनीति पर ही चर्चा लाजिमी है. इस वर्ष नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर बहुत बातें हुई. उनके महिमामंडन के प्रयास उम्मीद से ज्यादा हुए. एक चीज फिर भी उजागर हुई कि वे प्रयास इतने सतही थे कि उसमें स्वार्थ की बू आ रही थी. उनके नाम को भुनाने की कोशिश में तमाम झूठ और भ्रामक बातें प्रचारित हुई. लेकिन, एक बात सोचने योग्य है. नेताजी ने देश बचाने की लड़ाई में नौजवानों और आमजनों को जगाने के लिए उनका आह्वान इस नारे के साथ किया था–तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा. इसमें त्याग और बलिदान की भावना से लोगों को प्रेरित करने का प्रयास था. वे भावनाएं जो नेताजी के खुद के व्यक्तित्व की पहचान थी. वह जिस भावना से राष्ट्र निर्माण की कोशिश में लगे थे, उसी भावना से आम लोगों को भी देखते थे. और लोग भी उन भावनाओं को समझते थे, उनका आदर करते थे. आज की राजनीति का नारा क्या है. तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें मुफ्त में बहुत सी सुविधाएं दूंगा. यह एक तरह की गिरावट का द्योतक है, जो लोकतंत्र के लिए अहितकर है.
व्यापारिक संबंध : आज मुफ्त की सुविधा बांटने की होड़ लगी है. क्या मतदाता का वोट बिकाऊ है? राजनीतिज्ञ तो ऐसा ही समझते हैं लेकिन मतदाता को थोड़ा आत्म अवलोकन करना पड़ेगा. लोकतंत्र में जनता जनार्दन होती है. क्या जनता का व्यवहार जनार्दन की मर्यादा के अनुरूप है ? यह सवाल मतदाता को खुद से करना होगा. आज के नेताओं ने मतदाता को बिकाऊ समझ लिया है या फिर बिकाऊ बना रहे हैं? कुछ हद तक मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग राजनीतिज्ञों के साथ एक व्यापारिक संबंध बनाने में रुचि रखता है. यह खून के बदले आजादी वाला रिश्ता नहीं है. यह व्यापारिक लेन-देन का संबंध है. यही कारण है कि लोकतंत्र में अब शासक निरंकुश होते जा रहे हैं. उन्होंने तो सत्ता कीमत देकर खरीदी है. राष्ट्रवाद, चरित्र और ईमानदारी का दम लोग भले ही भरें, लेकिन ये मुफ्तखोरी बढ़ा रहे हैं. लोगों को कर्मठता का पाठ कैसे पढ़ा सकते हैं ऐसे लोग? जनता को अकर्मण्य और कामचोर बनाकर विश्व गुरु की दावेदारी बहुत अविश्वसनीय प्रतीत होती है. देश का भविष्य एक दो चुनाव से तय नहीं होता. वह तो तय होता है कर्मठता से, ईमानदारी से, आचरण से.
लोकतंत्र व्यापारिक डील है ? आज की राजनीति में जो कुछ चल रहा है, उससे तो यही लगता है कि लोकतंत्र एक व्यापारिक डील है. वोट और सत्ता की खरीद-फरोख्त का. यह जरूरी है कि एक बार फिर लोकतंत्र को उसकी शुद्धता दी जाए. और यह निजी और छोटे लाभ हित से ऊपर उठकर वोट देने से ही होगा. भ्रामक वायदों, झूठे नारों और जुमलों के बीच से सही और गलत का फैसला करना होगा. यह एक बड़ी चुनौती है मतदाता के लिए और देखना है कि 10 मार्च को क्या गुल खिलता है. वैसे मुद्दों पर बात करने की बजाय पिछली पीढ़ी के कुछ नेताओं को नीचा दिखाने का प्रयास इतना तो साबित करता ही है कि आगे की जमीन फिसलन भरी है. आत्ममुग्धता की सीमा है और लोग बहुत दिनों तक ठगे नहीं जा सकते. पिछली सरकारों के माथे पर ठीकरा फोड़ने से देश आगे नहीं जाता. देखना है कि लोगों के धैर्य की हद क्या है? इन पांच राज्यों के चुनाव परिणाम कुछ संकेत तो जरूर देंगे. राजधर्म का पालन तो तभी होगा, जब प्रजा अपने धर्म को समझे.
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