यह घटना आंदोलन के हिंसक होने का एक और उदाहरण है। यहां मुझे 1988 के उस किसान आंदोलन की याद हो आती है, जो भारतीय किसान यूनियन के तत्कालीन नेता महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में हुआ था। उल्लेखनीय है कि महेंद्र सिंह टिकैत उन्हीं राकेश टिकैत के पिता थे, जो मौजूदा किसान आंदोलन के नेताओं में शामिल हैं। वह एक ऐसा आंदोलन था, जिसमें पहली बार दिल्ली में किसानों की ताकत दिखी थी। बिजली, सिंचाई की दरें घटाने, फसलों की उचित कीमतें मिलने सहित करीब 35 मांगों के साथ विशेषकर उत्तर प्रदेश और हरियाणा के हजारों किसानों ने दिल्ली के बोट क्लब पर डेरा डाल दिया था। वे बसों, रेलों, बैलगाड़ियों आदि पर सवार होकर दिल्ली में दाखिल हुए थे।
मैं उन दिनों नई दिल्ली (तब दिल्ली को प्रशासनिक स्तर पर बांटा नहीं गया था) के अतिरिक्त कमिश्नर के पद पर नियुक्त था। आंदोलन कर रहे किसानों की नाराजगी शांत करने के लिए हमने कई तरह के उपाय किए। जैसे, लाउडस्पीकर लगाकर उन्हें गाना सुनाया, उनकी सुविधाओं का ख्याल रखा, उनके लिए अस्थाई बाथरूम व शौचालय बनवाए, खाना बनाने में उनकी मदद की। देखा जाए, तो हमने एक तरह से उनसे रिश्ता बना लिया था। उन्हें यह भरोसा देने में सफल रहे थे कि हम उनके अपने हैं, जबकि उपद्रवियों ने उस समय भी जमकर तोड़फोड़ की थी। मैं उस समय बापा नगर में रहता था और अपने घर के सामने तीन-चार मटके लगाए थे, ताकि जरूरतमंदों की प्यास बुझ सके। हुड़दंगियों ने उन सबको तोड़ दिया था। वे एकाध आंदोलनकारियों की मौत पर भी हंगामा कर रहे थे। मगर दिल्ली पुलिस उन सबको समझाने-बुझाने में सफल रही थी।
यह अनुभव बताता है कि दिल्ली पुलिस के पास कठिन परिस्थितियों से निपटने का पर्याप्त अनुभव है। वह इन सबसे लोहा लेने में दक्ष है। 26 जनवरी को उसने अपने धैर्य का बखूबी परिचय दिया। पुलिसकर्मियों पर लाठी-डंडे और लोहे के रॉड से हमले किए गए। उनको ट्रैक्टर से कुचलने का प्रयास किया गया। बावजूद इसके उन्होंने संयम दिखाया। उपद्रवियों की उकसाने की कार्रवाइयों का पुलिस ने शांतिपूर्वक जवाब दिया। यही वजह है कि इस घटना में 300 से भी अधिक पुलिसकर्मियों के घायल होने की सूचना आ रही है। सवाल अब यह है कि इस तरह के आंदोलनों से पुलिस को किस तरह निपटना चाहिए? शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन लोगों का मौलिक सांविधानिक अधिकार है। ऐसे प्रदर्शन लोकतंत्र में सेफ्टी वॉल्व का काम करते हैं।
मगर अपने यहां दिक्कत यह है कि आबादी के हिसाब से पुलिसकर्मियों की संख्या बहुत कम है। आंकडे़ बताते हैं कि भारत में प्रति लाख जनसंख्या पर महज 144 पुलिसकर्मी तैनात हैं, जबकि संयुक्त राष्ट्र तक मानता है कि 1,00,000 की आबादी पर कम से कम 222 पुलिसकर्मियों की नियुक्ति होनी चाहिए। यही वजह है कि अपने यहां पुलिस बल पर अतिरिक्त जिम्मेदारी आ जाती है। वह इस सवाल से भी जूझती है कि उसे आंदोलनकारियों की मर्जी के मुताबिक जगह आवंटित करनी चाहिए या किसी खास जगह पर आंदोलन की इजाजत देनी चाहिए? सौभाग्य से, दिल्ली-एनसीआर को लेकर कई अदालती आदेश यह बताते हैं कि यहां आंदोलन खास जगहों पर ही होने चाहिए। हमें इसका ख्याल रखना होगा। साथ ही, आंदोलन को लेकर तमाम खुफिया जानकारी पुलिस से साझा की जानी चाहिए और हर स्थिति से निपटने के लिए पुलिस के पास पूरी प्लानिंग होनी चाहिए।
लोकतांत्रिक संस्थाओं को भी इतना मजबूत होना चाहिए कि वे इस तरह की चुनौती से लोकतांत्रिक उपायों से पार पा सकें। वैसे, मैं अब भी यही मानता हूं कि दिल्ली पुलिस के पास पर्याप्त अनुभव है और वह हर स्थिति का सामना करने में सक्षम है। भविष्य में दिल्ली इस तरह से बंधक न बने, इसके लिए यह भी जरूरी है कि 26 जनवरी की हिंसा के दोषी बख्शे न जाएं। उन्हें न्याय के कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए। इसका मतलब है कि इस मामले की निष्पक्ष जांच हो और हिंसा के जिम्मेदार लोगों को सजा मिले। यहां वे किसान नेता अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकते, जिन्होंने शांतिपूर्ण ट्रैक्टर परेड का आश्वासन दिया था या जिन्होंने इस मार्च के लिए अनुमति मांगी थी। एक जरूरत उन कानूनों को मजबूत करने की भी है, जिनसे देश को लोकतांत्रिक दिशा मिलती है। इन सभी उपायों पर अमल न सिर्फ शांति बहाली के लिए, बल्कि लोकतंत्र की बेहतरी के लिए भी जरूरी है।