खतरा और करीब
पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट सनसनीखेज है। रिपोर्ट में पूरी दुनिया को सीधे तौर पर चेता दिया गया है कि जलवायु संकट से बनने वाले हालात में अब बचने-छिपने की जगह भी नहीं मिलेगी।
पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट सनसनीखेज है। रिपोर्ट में पूरी दुनिया को सीधे तौर पर चेता दिया गया है कि जलवायु संकट से बनने वाले हालात में अब बचने-छिपने की जगह भी नहीं मिलेगी। संयुक्त राष्ट्र ने एक तरह से खतरे का सायरन बजा दिया है। यानी अब दुनिया के सामने फौरन बचाव के अलावा कोई चारा दिखता नहीं है। जलवायु संकट को लेकर रिपोर्टें तो पहले भी आती रही हैं। लेकिन इस बार की रिपोर्ट आंखें खोल देने वाली है। वैसे जलवायु संकट पर संयुक्त राष्ट्र ही नहीं, बल्कि देशी-विदेशी संस्थान, सरकारी और गैर-सरकारी संगठन भी लगातार चेताते रहे हैं। लेकिन संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल ने इस बार दुनिया को चेतावनी भरे अंदाज में झकझोरा है। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन की गति का जो अनुमान था, उसकी रफ्तार ज्यादा ही तेज हो गई है।
संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी अपनी जगह है। लेकिन गौर किया जाना चाहिए कि हाल के दशकों में पृथ्वी के लगभग हर हिस्से पर कुदरती मार बढ़ती जा रही है। इस वक्त दुनिया के कई देशों में जंगल धधक रहे हैं। इससे तो लगता है कि आग की ये लपटें कहीं बहुत जल्दी शहरों को भी लपेटे में न लेने लगें। अमेरिका, कनाडा हो या फिर दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप के देश या फिर तुर्की जैसे देश, जंगलों की आग ने इंसान के सामने गंभीर खतरा खड़ा कर दिया है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। इसी तरह हाल में यूरोपीय देशों में आई बाढ़ ने ज्यादातर देशों का हुलिया ही बदल डाला। कहा तो यह जा रहा है कि पिछले एक हजार साल में यूरोप में ऐसी भंयकर बाढ़ नहीं आई। दुनिया के कई हिस्से बाढ़ और जंगलों की आग से बचे हैं तो वहां सूखे ने कहर बरपा रखा है। और पिछले कुछ साल में तो उन देशों में भी लू ने लोगों को झुलसा डाला जहां लोग गर्मी के मौसम की कल्पना भी नहीं करते थे। फिर वातावरण का तापमान बढ़ने से ध्रुवीय प्रदेशों तक की बर्फ पिघल रही है और समंदरों का जलस्तर उठता जा रहा है। जाहिर है, तटीय शहरों और टापुओं को आने वाले वक्त में डूबने से बचा पाना मुश्किल हो जाएगा।
आमतौर पर हम कहते आए हैं कि अपनी धरती, पानी और हवा के साथ इंसान जिस तरह की क्रूरता करता जा रहा है, उससे प्रकृति भी खफा हो चली है। और यह सब कुछ एक ही दिन में नहीं हुआ। इसका सबूत यह है कि दुनिया के सारे विकसित और विकासशील देश लंबे समय से इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जलवायु संकट से निपटा कैसे जाए। पर्यावरण और धरती को बचाने के लिए दशकों से दुनिया में छोटे-बड़े सम्मेलन होते रहे हैं, समझौते और संधियां भी होती रही हैं। पर ये समझौते अब तक कारगर दिखे नहीं। विद्वान लोग इसका एक बड़ा कारण यह मानते हैं कि पर्यावरण बचाने के लिए जिन देशों को सबसे ज्यादा गंभीरता दिखानी थी, उन्होंनें ही सबसे ज्यादा कोताही बरती। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमेरिका ही है जो अपने स्वार्थों के चलते पेरिस समझौते से अलग हो गया था। सवाल तो यह भी है कि ऐसे कितने देश हैं जिन्होंने कार्बन उत्सर्जन घटाने में संजीदगी दिखाई? बहरहाल अब अगर धरती को बचाने का काम सबके सर पर आ गया है तो बेहतर यही होगा कि समर्थ, संपन्न देश सबसे पहले सक्रिय हों और कुछ ऐसा ठोस करके दिखाएं जिससे दूसरे देशों को भी वैसा ही करने की प्रेरणा मिल सके।