दलित समाज बेहद विभक्त है
पहला यही कि दलित समाज बेहद विभक्त है। उसकी आंतरिक सामाजिक संरचना में उतना ही भेदभाव है जितना बाह्य समाज में। जाटव और पासी, पासी और वाल्मीकि, वाल्मीकि और डोम और ऐसे ही अनेक दलित समुदाय एक मंच पर नहीं आते। अधिकांश विमर्श दलित बनाम गैर-दलित पर ही केंद्रित रहता है। विश्लेषक 'दलित राजनीति' की बात करते हैं, लेकिन उनके विश्लेषण गलत हो जाते हैं, क्योंकि वे दलितों को समरूप समाज मानकर चलते हैं। कोई भी दलित या गैर-दलित नेता दलितों की आंतरिक सामाजिक संरचना की पदसोपानीयता और विसंगतियों को नहीं उठाता। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक 'दलित राजनीति' केवल सहयोगी राजनीति के रुप में ही क्रियाशील हो पाएगी, 'स्वायत्त-राजनीति' के रूप में नहीं।
दलित समाज लामबंद नहीं
दूसरा कारण यही है कि दलित समाज की आंतरिकपदसोपानीयता उसे समरूप समाज के रूप में लामबंद नहीं होने देती। यदि उप्र में जाटव केंद्रित दलित राजनीति है तो बिहार में पासी या मुसहर केंद्रित। पंजाब में सर्वाधिक 32 फीसद दलित हैं, लेकिन कोई दलित राजनीति की बात नहीं करता? कांशीराम तो होशियारपुर, पंजाब से थे। फिर भी वह वहां दलितों में पैठ नहीं बना सके? कारण स्पष्ट है कि वहां दलित समाज वाल्मिकी, रविदासी, कबीरपंथी, मजहबी सिख आदि में बंटे हुए हैं, जिनमें रोटी-बेटी का संबंध भी नहीं होता। क्या ऐसे विभक्त समाज में दलितों को लामबंद कर 'अस्मिता' आधारित राजनीति हो सकती है? क्या इसीलिए मायावती को पंजाब में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अकाली दल के साथ गठबंधन करना पड़ा? संभवत: इसी कारण भाजपा ने तुरुप का पत्ता चला है। भाजपा ने राज्य में दलित मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की है। यदि दलितों की राजनीतिक लामबंदी और सशक्तीकरण से उनके आंतरिक सामाजिक भेदभाव को खत्म किया जा सके तो यह घाटे का सौदा नहीं होगा।
दलित राजनीति स्वभाव से ही अस्मिता को ही तरजीह देता है
तीसरा पहलू यही है कि दलित राजनीति स्वभाव से ही अस्मिता अर्थात 'पहचान की राजनीति' को स्वीकार करती है। किसी दल पर जब यह ठप्पा लग जाता है कि वह दलित अस्मिता को ही तरजीह देता है तो समाज के अन्य वर्ग उससे कटने लगते हैं। इससे समावेशी राजनीति की संभावना खत्म हो जाती है। मायावती ने यह मिथक 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में तोड़ा जब उन्होंने सोशल इंजीनियरिंग द्वारा 'सैंडविच' गठबंधन बनाया। इसमें उन्हें सैंडविच के दो छोर की तरह न केवल ब्राह्मणों और दलितों का समर्थन मिला, वरन अंदरूनी र्फिंलग के रूप में समाज के अन्य वर्गों का भी समर्थन मिला। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान के दौरान मायावती की सोशल इंजीनियरिंग के प्रति मुझे श्रोताओं में काफी उत्सुकता, आशा और रोमांच दिखा। उनमें मायावती को भावी राष्ट्रीय नेता के रूप में देखने की इच्छा थी, लेकिन मायावती अपनी सोशल इंजीनिर्यंरग को आगे न ले जा सकीं। वह अस्मिता की राजनीति और समावेशी राजनीति में समन्वय न कर सकीं। दलितों को लगा कि उनकी 'अपनी' सरकार बनने के बावजूद वे सत्ता से बाहर हो गए, क्योंकि मायावती ने ब्राह्मणों, मुस्लिमों आदि को सत्ता में ज्यादा भागीदारी दे दी थी। वहीं से दलितों का 'अस्मिता' से मोहभंग हो गया और उन्हें अपनी आकांक्षाएं अधिक महत्वपूर्ण लगने लगीं। पिछले एक-डेढ़ दशक में यह प्रवृत्ति बढ़ी है और आज दलित समाज अस्मिता से ऊब चुका है। उसे अब अपनी आकांक्षाएं पूरी करनी हैं।
दलित समाज और राजनीति में कशमकश
इससे भारतीय राजनीति में नई संभावनाएं बनी हैं। दलित समाज ने अतीत में जैसे कांग्रेस को छोड़ा, उसी की पुनरावृत्ति वह आज दलित पार्टियों के साथ कर रहा है। कांग्रेस में दलितों की न कोई पहचान थी, न सत्ता में भागीदारी, न ही नेतृत्व में कोई प्रतिनिधित्व। दलित पार्टियों में उन्हें पहचान तो मिली, पर ये पार्टियां सत्ता से कोसों दूर हैं। यानी वे दलित आकांक्षाओं की पूर्ति करने में असमर्थ हैं। इसी कारण दलित समाज और राजनीति में कशमकश है जिससे आज का दलित सत्ता की कुंजी रखने वाले दल भाजपा की ओर आकृष्ट हो रहा है। देश में एक 'भाजपा सिस्टम' उभर रहा है जो सत्ता पर वैसा ही एकाधिकार चाहता है जैसा कभी कांग्रेस का था।
भाजपा मजबूत होगी
अभी तक दलों की सोच थी कि दलितों का सामाजिक सशक्तीकरण होगा तो उनका राजनीतिक सशक्तीकरण स्वत: हो जाएगा। भाजपा ने इस सोच को उलट दिया है। वह दलितों के राजनीतिक सशक्तीकरण से ही उनका सामाजिक सशक्तीकरण करना चाहती है। इससे न केवल उनका राजनीतिक सामाजिक सशक्तीकरण होगा, वरन भाजपा मजबूत होगी और हिंदू समाज के विभाजन की प्रवृत्ति भी घटेगी। इस प्रयोग से आज उप्र के लगभग सभी दलित विधायक और दलित सांसद भाजपा के हैं, जो प्रमाणित करता है कि दलित राजनीति करवट ले चुकी है और अस्मिता की दीवार तोड़ दलित आकांक्षाएं हिलोरें मार रही हैं।