कोरोना काल में संकट के सिपाही: महामारी में धर्म और धर्मात्मा की भूमिका

कोरोना काल में संकट के सिपाही

Update: 2021-05-30 07:56 GMT

इन दिनों अमर उजाला में 'संकट के सिपाही' नामक एक शृंखला चल रही है। इसका उद्देश्य धर्म, जाति, क्षेत्र और रंग से परे समाज में मानवीय संवेदनाओं, करुणा, प्रेम और नि:स्वार्थ सेवा की ताकतों को मजबूत करना है। एक सशक्त वर्ग महामारी के दौरान भी जिस तरह धर्म को घसीट कर अपने संकीर्ण हित साधने की कोशिश करता रहा है, उसके मद्देनजर विगत 26 मई को दो सिपाहियों पर प्रकाशित सामग्री का उल्लेख प्रासंगिक है। एक हैं जौनपुर के डॉ. शाहिद और दूसरे हैं वाराणसी के महंत बालक दास। एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर तैनात चिकित्सक डा. शाहिद की पत्नी का पिछले दिनों कोरोना से इंतकाल हो गया। रोगियों की चिकित्सा करते-करते वह खुद संक्रमित हो गए। पत्नी के निधन के तीसरे दिन वह फिर मरीजों के इलाज में जुट गए। अगर कोई मरीज केंद्र तक आने की हालत में नहीं है, तो वह उसके घर भी पहुंच जाते हैं। वाराणसी के पातालपुरी मठ के पीठाधीश्वर महंत बालकदास ने मठ में 24 घंटे का सेवा केंद्र खोल रखा है। वह दवा, अनाज, ऑक्सीजन कंसेंट्रेटर-हर चीज की व्यवस्था में जुटे रहते हैं। वह कहते हैं कि हमारे मठ के दरवाजे सभी धर्मों और जातियों के लिए हमेशा खुले रहते हैं।

चिकित्सा विज्ञान को धार्मिक रंग देने की कोशिशें कुछ तो भ्रांतियों वश और कुछ शरारतन की जाती हैं। प्रायः आयुर्वेद को हिंदुओं और यूनानी को मुसलमानों से जोड़ दिया जाता है। लेकिन क्या प्रमाण कि हिंदू समाज और हिंदू धर्म सैकड़ों साल में विकसित होकर आज जिस रूप में हमारे सामने हैं, वेदों की रचना उन्हीं के लिए की गई थी? आयुर्वेद एक महान चिकित्सा विज्ञान रहा है, पर जिस दौर में यूरोपीय देश लाखों-करोड़ों डॉलर शोध पर खर्च कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं, आयुर्वेद गतिरोध का शिकार हो गया। यूनानी चिकित्सा को मुसलमानों से जोड़ दिया जाता है। सच यह है कि इस चिकित्सा का जन्म इस्लाम से सैकड़ों साल पहले हो चुका था। यूनानी ज्ञान, विज्ञान, गणित और दर्शन अरबों के पास पहुंचे। उन्होंने अरबी में अनुवाद किया और उससे ये सब यूरोप पहुंचा। अरब में इस्लाम के विस्तार से पहले यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। उसी तरह भारत और अरबों के रिश्ते डेढ़ हजार साल पहले के हैं। आज यूनानी चिकित्सा न तो ग्रीस (यूनान) में है और न किसी अरब देश में। पाकिस्तान में विभाजन से पहले यूनानी के मशहूर केंद्र हुआ करते थे। अब वहां भी हालत खराब है। भारत में यूनानी व्यवस्था के चलते रहने का सबसे बड़ा कारण यह है कि सरकारें इसे प्रोत्साहित करती रही हैं। बीच में इस्लाम कहां से आया?


होम्योपैथी और एलोपैथी का विकास ईसाई धर्म की स्थापना के बाद हुआ। सैमुअल हाइनमान ने 18 वीं शताब्दी में होम्योपैथी का विकास ईसाइयों या यहूदियों के लिए नहीं किया था। इन धर्मों से इस विधा का कोई रिश्ता है भी नहीं। एलोपैथी के विशेषज्ञ होम्योपैथी पर अक्सर अविश्वास जताते हैं। फिर भी भारत में होम्योपैथी को व्यापक लोकप्रियता प्राप्त है और सरकारें इसके संरक्षण पर करोड़ों रुपये खर्च करती हैं। गनीमत है कि इसे अभी तक ईसाई धर्म के साथ नत्थी नहीं किया गया। तिब्बती चिकित्सा पद्धति का विकास तिब्बत में बौद्ध धर्म पहुंचने से थोड़ा पहले प्रारंभ हो चुका था। बौद्ध काल के स्वर्ण युग में इसका तेजी से विकास हुआ। भारत में आज भी तिब्बती चिकित्सा केंद्र चल रहे हैं। पर इन्हें बौद्ध धर्म से नहीं जोड़ा जाता।

तब फिर यह मिथ्या आरोप किस आधार पर लगाया जा रहा कि एलोपैथी की आड़ में ईसाई धर्म का प्रसार और आयुर्वेद को बदनाम किया जा रहा है? आज तक इस लेखक ने किसी नामी एलोपैथिक डॉक्टर, किसी दवा कंपनी या ईसाई देश को आयुर्वेद अथवा योग के खिलाफ बोलते नहीं सुना। अमुक चिकित्सा पद्धति समस्त रोगों का समूल नाश कर देती है, यह दावा विज्ञान और वैज्ञानिक प्रक्रिया से अनभिज्ञ व्यक्ति ही कर सकते हैं। सिर्फ एक सवाल : पेंसिलिन के ईजाद होने से पहले राजरोग यानी टीबी से राजा-महाराजाओं और धन्नासेठों की मौत अनिवार्यतः क्यों हुआ करती थी? विजयनगर साम्राज्य के स्वामी कृष्णदेव राय, रईस वकील मोहम्मद अली जिन्ना और मोतीलाल नेहरू की बहू कमला नेहरू को धन की क्या कमी थी!

मलेरिया, कालाजार, चेचक और डिसेंट्री जैसी अनेक जानलेवा बीमारियों से निजात दिलाने में एलोपैथी का स्वर्णिम योगदान रहा है। विराट कंपनियों से नाभिनाल संबंध के कारण एलोपैथी आगे भी योगदान करती रहेगी। औरों को किसने रोका है?

एलोपैथी ने कोरोना वायरस का सौ फीसदी गारंटीशुदा इलाज अभी भले न दिया हो, पर लाखों-करोड़ों की जान बच तो इसी की बदौलत रही है। तरह-तरह की आस्थाओं वाले समाज में विज्ञान के प्रति अनास्था फैलते देर नहीं लगती। उच्च शिक्षा प्राप्त राजनेताओं ने तो पिछले साल टीकाकरण के खिलाफ अभियान चलाया था और बाद में खुद लपक कर टीका लगवाने पहुंच गए थे। यह राजनीतिक या व्यावसायिक लाभ के लिए क्षुद्र राजनीति का समय नहीं है। वैज्ञानिकों और मेडिकल टीमों के साथ जब डॉ. शाहिद और महंत बालकदास जैसे अनगिनत लोग उठ खड़े होने लगते हैं, तब महामारी के भागने के साथ ही अनास्था पैदा करने वाले भी पराजित होते हैं।

क्रेडिट बाय अमर उजाला 
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