Criminal Procedure Identification Bill 2022 : पुलिस को किसी अपराधी से बायो सैंपल लेने के अधिकार का विरोध क्यों?
पिछले कुछ दशकों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने काफी तरक्की की है
प्रवीण कुमार।
पिछले कुछ दशकों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने काफी तरक्की की है. निश्चित रूप से सरकार का यह धर्म बनता है कि इस तकनीक का इस्तेमाल समाज में बढ़ते अपराध (Crime) व अपराधियों (Criminal) की जांच प्रक्रिया में भी हो. शायद इसी मंशा से केंद्र सरकार साल 1920 में बने ब्रिटिशकालीन कानून को रिप्लेस करने के लिए अपराध प्रक्रिया (पहचान) विधेयक 2022 (The Criminal Procedure Identification Bill 2022) लेकर आई है. सरकार का कहना है कि विधि आयोग ने भी 1980 में इस पुराने कानून में बदलाव का सुझाव दिया था, लेकिन 42 साल तक सिफारिशों पर अमल नहीं किया गया.
अगर यह विधेयक दोनों सदनों से पारित होकर कानून बनता है तो पुलिस को यह अधिकार हासिल हो जाएगा कि वह अपराधियों के अंगों का निशान ले सके. इसके तहत पुलिस अपराधियों की उंगलियों के निशान, पैरों और हथेली के निशान, फोटोग्राफ, बॉयोलॉजिकल सैंपल, आंख की पुतली, रेटिना स्कैन, दस्तखत और लिखावट जैसे रिकॉर्ड का कलेक्शन कर सकती है. विपक्ष सरकार के इस विधेयक का विरोध कर रही है. उसका कहना है कि विधेयक संसद की विधायी क्षमता से परे है, क्योंकि यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है. ऐसे में यहां कई सवाल एक साथ उभरते हैं. पहला यह कि इस विधेयक में ऐसा क्या है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है? दूसरा, आखिर देश के लिए क्यों जरूरी है यह कानून? और तीसरा सवाल, इस बिल को लेकर आपत्तियां कितनी सही हैं?
सरकार के इस प्रस्तावित कानून में क्या है?
अपराधियों और बंदियों की शिनाख्त से संबंधित 102 साल पुराने कानून का दायरा बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार संसद में जो अपराध प्रक्रिया पहचान विधेयक 2022 (The Criminal Procedure Identification Bill 2022) लेकर आई है उसमें पुलिस को इस बात का अधिकार दिया गया है कि वह पहचान और आपराधिक मामले की जांच के लिए किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति या दोषी के फिजिकल और बायोलॉजिकल सैंपल्स ले सकती है. संसद में पेश यह विधेयक पारित होने के बाद साल 1920 के कैदियों की पहचान संबंधी कानून (The Identification of Prisoners Act, 1920) की जगह लेगा. इस नए विधेयक की धारा 2(1)(बी) के तहत उंगलियों के निशान, हथेली के निशान, पैरों के निशान, फोटोग्राफ, आंखों की पुतली, रेटिना, भौतिक और जैविक नमूने और उनके विश्लेषण करने की जांच प्रक्रिया को परिभाषित किया गया है.
इतना ही नहीं, यह बिल पुलिस को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 53 या धारा 53ए के तहत संदर्भित हस्ताक्षर और लिखावट या किसी अन्य परीक्षा सहित उनके व्यवहार संबंधी गुणों को एकत्र करने की भी अनुमति देगा. इस विधेयक में किसी भी अपराध के मामले में गिरफ्तार, दोषी ठहराए गए या हिरासत में लिए गए लोगों का रिकॉर्ड रखने के लिए अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल की अनुमति देने का प्रस्ताव किया गया है. इस तरह की जांच-पड़ताल से जो भी जानकारी इकट्ठा की जाएगी उसे डिजिटल या इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म में कलेक्शन डेट से 75 साल तक सुरक्षित व संरक्षित रखा जाएगा. इसके लिए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) को राज्य सरकारों या केंद्रशासित प्रशासन से या किसी अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों से इस जानकारी का रिकॉर्ड रखने के लिए अधिकृत किया गया है. सरकार का ऐसा मानना है कि अधिक से अधिक ब्यौरा मिलने से अपराधियों या दोषियों को सजा दिलाने में तेजी आएगी और जांचकर्ताओं को अपराधियों को पकड़ने में सुविधा होगी.
क्यों जरूरी है यह कानून और कौन होगा दायरे में?
दरअसल, मौजूदा बन्दी शिनाख्त अधिनियम साल 1920 में बना था और उसमें केवल फिंगर और फुट प्रिंट ही लिया जाता था. इन सौ सालों में दुनिया में बहुत से चीज़ें बदली हैं, आपराधियों को और ज्यादा व जटिल अपराध करने का जो ट्रेंड इस दौरान बढ़ा है, लिहाजा एक अपडेटेड दण्ड प्रक्रिया पहचान अधिनियम 2022 जरूरी हो गया था. इससे आपराधिक जांच एजेंसियों को तो फायदा होगा ही, प्रॉसिक्यूशन भी बढ़ेगा और इसके साथ-साथ कोर्ट में दोषसिद्धि का प्रतिशत भी बढ़ने की पूरी-पूरी उम्मीद है.
ब्रिटिशकाल में बने मौजूदा कानून की बात करें तो उसमें उन दोषी ठहराए गए अपराधियों और अपराध के मामले में गिरफ्तार लोगों के शरीर के सीमित माप की अनुमति दी गई है, जिसमें एक साल या उससे अधिक सश्रम कारावास का प्रावधान होता है. मौजूदा कानून में मजिस्ट्रेट के आदेश पर एक साल या अधिक समय की सजा के अपराध में गिरफ्तार या दोषी ठहराए गए लोगों के अंगुली और पैरों की अंगुलियों के निशान लेने की अनुमति दी गई है. किसी भी दोषी, गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए लोगों को पुलिस अधिकारी या जेल अधिकारी से इस तरह की जांच करवानी होगी.
हालांकि जो दोषी नहीं ठहराए गए हैं या महिलाओं या बच्चों के खिलाफ अपराध में गिरफ्तार नहीं हुए हैं और जो सात साल से कम अवधि वाले अपराध के लिए हिरासत में लिए गए हैं, वे सभी लोग अपना बायलॉजिकल सैंपल देने से मना कर सकते हैं. लेकिन प्रस्तावित कानून में ये सुविधा नहीं होगी. प्रस्तावित कानून तीन श्रेणियों के व्यक्तियों पर लागू होगा- पहला, जो किसी अपराध के लिए दोषी ठहराए जाते हैं जो किसी भी कानून के तहत दंडनीय है. दूसरा, जिन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 107, 108, 109 या 110 के तहत कार्रवाई के लिए सीआरपीसी की धारा 117 के तहत अच्छे व्यवहार या शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा देने का आदेश दिया गया है. तीसरा, इसमें अपराध को रोकने की दृष्टि से संदिग्ध अपराधियों या आदतन अपराधियों से जुड़े प्रावधान हैं.
आखिर विधेयक का विरोध क्यों कर रहा है विपक्ष?
दरअसल, सरकार के इस विधेयक में कई प्रावधानों को परिभाषित नहीं किया गया है. खासतौर से मौलिक अधिकारों को लेकर ज्यादा चिंता जताई जा रही है. आरोप है कि इसमें अभिव्यक्ति या अन्य व्यक्तियों को लेकर जांच प्रक्रिया को ठीक से परिभाषित नहीं किया गया है. इसमें कुछ अपराधों के आरोपी शामिल हैं, लेकिन पुलिस प्रस्तावित कानून का इस्तेमाल दूसरों तक पहुंचने के लिए भी कर सकती है या नहीं इसको लेकर स्पष्टता नहीं है. दूसरा, विपक्ष का साफतौर पर कहना है कि विधेयक संविधानप्रदत मौलिक अधिकारों के साथ-साथ मानवाधिकार के भी खिलाफ है. कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी का कहना है कि यह विधेयक मौलिक अधिकार सुनिश्चित करने वाले संविधान के अनुच्छेद 20(3) और 21 का अनादर है. उन्होंने आजादी के बाद से विभिन्न हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि पुलिस किसी आरोपी की मर्जी के खिलाफ बायोलॉजिकल सैंपल नहीं ले सकती है और अगर ऐसा होता है तो यह उस व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा. तृणमूल कांग्रेस के सौगत रॉय, कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी और आरएसपी के एनके प्रेमचंद्रन ने भी इन्हीं तर्कों के आधार पर विधेयक का विरोध किया है.
आरएसपी के एनके प्रेमचंद्रन ने पूछा, अगर मान लीजिए मेरे खिलाफ कोई मामला दर्ज होता है तो मेरा डीएनए जांचा जाएगा. इसका क्या मतलब है? यह तो नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा. उन्होंने दावा किया कि अगर यह कानून यहां से पारित हो भी जाता है तो यह न्यायपालिका में नहीं ठहर पाएगा. कहने का मतलब यह कि विधायिका या कार्यपालिका के किसी कार्य या निर्णय से यदि मौलिक अधिकारों का हनन होता है या उनपर अनुचित प्रतिबंध लगाया जाता है तो न्यायपालिका उसे अवैध घोषित कर सकती है. कुल मिलाकर देखा जाए तो क्रिमिनल प्रोसीजर आइडेंटिफिकेशन बिल 2022 में जो बातें कही गई हैं, निश्चित तौर पर संसद के दोनों सदनों में बिल को लेकर विपक्ष जिस तरह से विरोध कर रहा है, सरकार को चाहिए कि वह विधेयक के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर बहस कराए. जहां तक लोगों के मौलिक अधिकार और निजता के उल्लंघन का मामला है तो इसपर सदन में बहस से सरकार को भागना नहीं चाहिए. अगर विधेयक में संशोधन करनी पड़े तो उसपर विचार किया जाना चाहिए. आनन-फानन में जबरन विधेयक को पारित किया जाना 130 करोड़ देशवासियों के साथ न्याय नहीं होगा.
लेकिन अगर इसे व्यवहारिक तौर पर देखा जाए तो देश की लगभग 100 करोड़ से अधिक आबादी की बायो सेंपलिंग आधार कार्ड के जरिये पहले ही हो चुकी है. यहां तक कि प्राइवेट कंपनियों के दफ्तरों में ज्वाइन करने से पहले ही आपकी बायो-कुंडली खंगाल ली जाती है. चूंकि आधार डेटा को एक्सेस करने के लिए किसी भी जांच एजेंसी या संबंधित संस्थाओं को अदालती प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, लिहाजा सरकार इस प्रस्तावित कानून के जरिए अपराध व अपराधियों के बदलते स्वरूप पर शिकंजा कसने के लिए अपराधियों की बायो-कुंडली बनाना चाहती है. ये बायो-कुंडली सरकार की जांच एजेंसियों के पास रहेगा तो किसी भी तरह के अपराध और उसमें शामिल अपराधियों की छानबीन प्रक्रिया आसान हो जाएगी. तो असल बात नीति के साथ नीयत की है. सरकार की नीयत अगर अपराधियों पर नकेल कसने की है तो ऐसे विधेयक या प्रस्तावित कानून से किसी को कोई ऐतराज नहीं हो सकता.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)