राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, केवल राजस्थान में 2020 में अनुसूचित जातियों के विरुद्ध सात हजार से अधिक घटनाएं हुईं। पर किसी हिंदू संगठन, महात्मा, संत या नेता ने इन घटनाओं के विरुद्ध आवाज उठाई हो, ऐसा दिखा नहीं। बेचारे दलित संगठन बयान देते हैं, जो कहीं-कहीं छप भी जाता है। राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अपराध के मामले 2018 में 42,793 थे, जो 2020 में 50 हजार से ज्यादा हो गए। यह सब इतना सामान्य बन गया है कि इन घटनाओं के बढ़ने पर न कोई आश्चर्य करता है, न कहीं आंदोलन की धमकी दी जाती है। हां, अगर कुछ दलित धर्मांतरण करने की बात कहें, तो धर्म रक्षा की अग्नि धधक उठेगी।
20 मई, 2016 को उत्तराखंड के एक मंदिर में कुछ दलितों को ले जाने के 'अपराध' में तथाकथित सवर्णों ने हम पर जमकर पत्थर मारे। वास्तव में सवर्ण उनको नहीं कहना चाहिए, जिनको अपनी जाति के उच्चतर होने का घमंड है। हिंदू समाज के सवर्ण और पूज्य तो वे दलित हैं, जिन्होंने सदियों के जाति भेद वाले अत्याचार सहकर भी राम नाम कहना नहीं छोड़ा। संपूर्ण भारतवर्ष में सबसे ज्यादा रामनामी हिंदू यदि मिलेंगे, तो दलित जातियों में ही मिलेंगे। बस यही उन ठाकुरों, ब्राह्मणों को समझ में नहीं आता, जो दलित दूल्हे को बारात में घोड़ी पर चढ़ते देख नहीं सकते। तमिलनाडु मेरा दूसरा घर और उत्तराखंड से अधिक वात्सल्य देने वाला क्षेत्र है। वहां आज भी 'टू ग्लास सिस्टम' चलता है। पंचायत सदस्य दलित हैं, तो उनको भी भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इसके खिलाफ कोई नहीं बोलता।
मेरे एक मित्र हैं। हिंदू धर्म के प्रति प्रखर निष्ठावान। पर जीवन में कभी मंदिर नहीं गए। दलित होने के कारण बचपन में पुजारी ने उन्हें मंदिर से बाहर निकाल दिया था। ऐसी चोट लगी, कि दोबारा मंदिर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। इसको आप किस तरह से समझाएंगे? धर्म ग्रंथ लेकर उनके पास जाएंगे और कहेंगे कि देखो, इनमें लिखा है कि अस्पृश्यता पाप है और क्या इससे समाधान हो जाएगा? अपने प्रवचन और पुस्तकें अल्मोड़ा की उस बच्ची के पास लेकर जाओ, जिसका नाम गीता है। उसने अनुसूचित जाति के जगदीश से शादी की। गीता के राजपूत पिता को यह स्वीकार नहीं था। गीता ने एक महीने पहले ही संपूर्ण विवरण लिखकर पुलिस को दिया, जिसमें स्पष्ट लिखा कि उसके पिता उसके पति को मार देंगे। लेकिन पुलिस ने कुछ नहीं किया। जगदीश को गीता के पिता ने पीट-पीटकर मार दिया। सारा मामला पुन: यही बनाया गया कि गीता का पिता क्रोधी था, गुस्से में मार दिया, इसमें जाति का क्या मामला है? इससे पहले परकोट में एक दलित ने बड़े साहब के आटे को छू लिया था, तो वहीं उसका गला काट डाला गया। तब भी यही कहा गया था कि मामला जाति का नहीं है। मारने वाले की प्रवृत्ति ही ऐसी थी।
सावरकर ने पतित पावन मंदिर बनाकर अस्पृश्यता के विरुद्ध आवाज उठाई थी और कर्मकांडी, रूढ़िवादी, जड़बुद्धि हिंदुओं को थप्पड़ मारा था। आज वे आवाजें मौन हो चुकी हैं। 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में हिंदू धर्म छोड़कर डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। अस्पृश्यता काफी हद तक हमारे शहरी जीवन से हटी है, पर अखबारों के वैवाहिक विज्ञापन बताते हैं कि हम सुधरे नहीं हैं। इसीलिए आज भी दलितों को मारा जाता है और फिर बताया जाता है कि मामला जाति का नहीं था।
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