क्रिकेट: कोचिंग में नाम बड़े और दर्शन छोटे!
आईपीएल में तो खैर आप देख ही रहें हैं कि कैसे पूर्व खिलाड़ियों ने कोचिंग से जुड़े अहम पदों पर अपना दबदबा कायम रखा है
विमल कुमार आईपीएल में तो खैर आप देख ही रहें हैं कि कैसे पूर्व खिलाड़ियों ने कोचिंग से जुड़े अहम पदों पर अपना दबदबा कायम रखा है, भले ही उनके पास बुनियादी कोचिंग का अनुभव हो या नहीं. चाहे दिल्ली के लिए रिकी पोटिंग हों या फिर कोलकाता के लिए ब्रैंडन मैक्कलम, मुबंई के लिए माहेला जयावर्दने हों या फिर पंजाब के लिए अनिल कुंबले. चेन्नई के लिए स्टीफन फ्लेमिंग तो करीब एक दशक का सफर तय कर चुकें हैं. वहीं, राजस्थान रॉयल्स के लिए पिछले साल एंड्रयू मैक्डोनाल्ड का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा और एक ही साल बाद छुट्टी कर दी गई.
साथ ही, क्रिकेट के सभी बड़े फैसलों की ज़िम्मेदारी श्रीलंका के पूर्व कप्तान कुमार संगाकारा दो दे दी गई है. हैदराबाद के लिए ट्रेवर बेलिस हेड कोच की भूमिका निभा रहें हैं, लेकिन वहां पर क्रिकेट डायरेक्टर के तौर पर पूर्व हेड कोच टॉम मूडी मौजूद हैं. मुंबई इंड़ियंस में भी जयावर्देने का साथ देने के लिए क्रिकेट डायरेक्टर के तौर पर ज़हीर ख़ान मौजूद है. आईपीएल के उदाहरण ये साफ दिखाते हैं कि अब भी टीमों की पहली पसंद बड़े नाम वाले पूर्व खिलाड़ी हैं. भले ही उनके पास कोचिंग का अनुभव रहा हो या नहीं.
चलिए, आईपीएल में तो ये तर्क समझा जा सकता है, क्योंकि सिर्फ 2 महीने के टूर्नामेंट में किसी कोच के लिए खिलाड़ियों के बुनियादी खेल या तकनीक के साथ बहुत ज़्यादा छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है और इसलिए उनका रोल सीमित होता है. उनका मुख्य काम खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने का और मैन मैनेजमेंट का ही होता है औऱ साथ ही बड़े नाम होने के चलते फ्रैंचाइजी उनकी ब्रांडिंग का फायदा भी उटाने की कोशिश अलग अलग तरीक से करते हैं.
टीमों की पहली पसंद बड़े नाम वाले पूर्व खिलाड़ी ही क्यों?
दुनिया भर की राष्ट्रीय टीमें ऐसे कोच के पीछे क्यों भाग रही हैं? ये ट्रैंड थोड़ा से हैरान करने वाला रहा है. अब आप खुद ही देखिये ना कि जैसे ही पाकिस्तान के पूर्व कप्तान रमीज राजा अपने देश के क्रिकेट बोर्ड के सर्वेसर्वा बने तो उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के पूर्व ओपनर मैथ्यू हेडेन को बल्लेबाज़ी कोच और साउथ अफ्रीका के पूर्व ऑलराउंडर वर्नेम फिलेंडर को गेंदबाज़ी कोच बना दिया, जबकि उनके पास कोचिंग का शून्य अनुभव है.
आप ये ज़रुर कह सकते हैं मिज़बा उल हक़ के पास भी कोचिंग अनुभव शून्य था, लेकिन वो भी बल्लेबाज़ी कोच बने हुए थे. दरअसल, यही समस्या है. अब आप टीम इंडिया का ही उदाहरण देख लें. हेड कोच के तौर पर रवि शास्त्री का कोचिंग अनुभव शून्य है, लेकिन शास्त्री ने बहुत शानदार तरीके से बल्लेबाज़ी कोच के तौर पर पहले संजय बांगर औऱ अब विक्रम राठौढ़ को नियुक्त करवाया और गेंदबाज़ी कोच के तौर पर उनके बचपन के दोस्त भरत अरुण तो हैं ही और फील्डिंग कोच श्रीधर यानि हेड कोच का काम पूरी तरह से आउट-सोर्स हो चुका है और वो बड़े बड़ेय ब्यान दने के लिए स्वतंत्र हैं!
कोचिंग की अहमियत को नज़रअंदाज़ क्यों किया जा रहा है?
ख़ैर, इस लेख का मुद्दा शास्त्री या किसी और पूर्व खिलाड़ी की खिंचाई नहीं करना है, बल्कि ये कहना है कि कैसे अंत्तराष्ट्रीय क्रिकेट में मूल कोचिंग की अहमियत को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है. भारत ही नहीं अगर साउथ अफ्रीका में देखें तो वहां के सर्वेसर्वा और पूर्व कप्तान ग्रेम स्मिथ ने अपने पूराने साथी मार्क बाउचर को हेड कोच बनवा दिया और जैक कैलिस को बल्लेबाज़ी कोच. बाउचर को लो प्रोफाइल Enoch Nkwe की जगह आसानी से इसलिए मिल गई. क्योंकि उन्होंने पास टेस्ट मैच का अनुभव नहीं था.
अभी हाल ही में टीम इंडिया के पूर्व कोच लालचंद राजपूत ने इस लेखक को बताया था कि भारतीय क्रिकेट में हमेशा अच्छा कोच उसी को माना जाता है, जिसने 50 टेस्ट खेलें हों. लेकिन ये मान्यता सही नहीं है. कोचिंग एक अलग बात होती है. मैन मेनेजमेंट का काम होता है और आपको हर किसी से बेहतर खेल निकालना ही कोचिंग है. 2007 में पहली बार टीम इंडिया को टी20 वर्ल्ड कप जिताने में योगदान का भले ही श्रैय राजपूत को नहीं मिलता हो, लेकिन इस बात से कैसे झुठलाया जा सकरता है कि वो इकलौते ऐसे भारतीय कोच हूं, जिसे एक नहीं बल्कि दो-दो विदेशी टीम की कोचिंग करने का मौका मिला है.
राजपूत ने पहले अफगानिस्तान को टेस्ट स्टेट्स दिलाने में योगदान दिया और फिर अभी ज़िम्बाब्वे के साथ जुड़ें हुए हैं. वो कुछ तो अच्छा ज़रुर कर रहें होंगे. लेकिन इसके बावजूद जब टीम इंडिया में जब भी कोचिंग के लिए वेकेंसी आती है तो राजपूत को वैसे ही नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है जैसे कि उन्होंने कुछ हासिल ही नहीं किया हो.
बड़े नाम होते हैं फ्लॉप लेकिन उसकी चर्चा कोई क्यों करे?
आपको एक और उदाहरण देता हूं. कैलिस आईपीएल में कोलकाता के साथ पूरी तरह से नामाकाम रहे ते बावजूद इसके उन्हें इंग्लैंड ने बल्लेबाज़ी सलाहकार बना लिया. एक और अफ्रीकी खिलाड़ी एश्वेल प्रिंस का अपने देश में Cape Cobras के साथ नाकामी के बावजूद बांग्लादेश टीम के साथ करार हो गया. टीम इंडिया के पहले विदेशी कोच जॉन राइट इसलिए कामयाब हुए क्योंकि उन्होंने इंग्लैंड में कैंट काउंटी के साथ कोचिंग का अनुभव हासिल किया था. महान बल्लेबाज़ ग्रेग चैपल फ्लॉप रहे. गैरी कर्स्टन एक महान बल्लेबाज़ थे, लेकिन उन्होंने खुद को किसी आम कोच की तरह पेश किया और नतीजा रहा टीम इंडिया की 28 साल बाद वर्ल्ड कप में जीत.
लेकिन, सिर्फ अच्छा कोच होने के लिए इतना ही काफी नहीं होता है और इसलिए उसके बाद से अगर आप कर्सट्न के कोचिंग करियर पर नज़र डाले तो वो आईपीएल में दिल्ली के लिए ही नहीं हर फैंचाइजी के साथ नाकाम ही साबित हुए. और ज़्यादा पीछे जाने की ज़रुरत नहीं है. न्यूज़ीलैंड के डेनियल वेटोरी महान खिलाड़ी ते लेकिन वो आईपीएल में ना सिर्फ बैंगलोर के लिए बुरी तरह से नाकाम हुए बल्कि हर जगह मायूस करते रहे और करीब आधे दर्जन टीमों के साथ वो दुनिया भर में जुडे. ये बात एक बार फिर से साबित करती है कि एक अच्छा खिलाड़ी के बेहतर कोच की संभावना कम होती है जबकि इसके विपरीत कम ओहदे वाला खिलाड़ी सिर्फ कोचिंग के बूते सर्वोच्चता हासिल कर सकता है.
आखिर क्रिकेट इतिहास के सबसे कामयाब कोच ऑस्ट्रेलियाई जॉन बुकानन के पास तो बहुत ज़्यादा अंत्तराष्ट्रीय अनुभव नहीं था. जब एक चेतेश्वर पुजारा या अंजिक्य रहाणे तकनीकी कमज़ोरी के दौर से गुज़रता है तो उसे शायद शास्त्री के सिर्फ मनोबल बढ़ाने वाली बातों के साथ साथ एकक अच्छे तकीनीकी कोच का भी इनपुट मिलना आवश्यक होता है
बड़े खिलाड़ियों को कोचिंग में स्वभाविक रिजर्वेशन मिलना सही?
बड़े खिलाड़ियों को राष्ट्रीयों टीमों की कोचिंग में स्वभाविक रिजर्वेशन मिलना सही नहीं है.जिस कोच ने ज़मीनी स्तर पर दशकों का अनुभव हासिल किया है और तब शीर्ष पर पहुंचने के करीब पहुंचा हो तो उसे सिर्फ ये कह कर नहीं छांटा जा सकता है कि भई आपने बहुत ज़्यादा क्रिकेट नहीं खेली है. टॉप लेवल पर क्रिकेट खेलना एक बात है और टॉप लेवल पर कोचिंग के ज़रिये किसी युवा खिलाड़ी का खेल निखराना एक दूसरी बात. अब आप खुद सोचिये कि जिस राजपूत ने विराट कोहली को अंडर 19 के दौर से देखा तभी तो कोहली जडैसे बल्लेबाज़ ने 2014 में इंग्लैंड दौरे से लौटने के बाद उसी राजपूत क पास मुंबई में 2 हफ्ते बिताये.
ये ठीक है कि वाहावाही सचिन तेंदुलकर की हुई जो उस दौरान कोहली के साथ की बार नैट्स पर आये लेकिन राजपूत के योगदान को किसी ने नहीं सराहा. बात सिर्फ राजपूत की ही नहीं बल्कि भरत अरुण की भी है. मौजूदा भारतीय गेंदबाज़ी कोच देश के लिए बहुत मैच नहीं खेले, लेकिन घरेलू स्तर पर उनके पास हर स्तर की कोचिंग का ऐसा ज़बरदस्त अनुभव रहा है कि आज उन्होंने खुद अकेले दम पर टीम इंडिया के सामने तेज़ गेंदबाज़ों की फौज कड़ी कर दी है. क्रिकेट जगत को राजपूत और अरुण जैसे केस स्टडी से सबक लेने का वक्त आ गया है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)