नवभारत टाइम्स: कहने को भले ये दो राज्यों के विधानसभा चुनाव थे, लेकिन जिस तरह से इन पर पूरे देश की नजरें टिकी हुई थीं, उससे पहले दिन से साफ था कि ये उससे कहीं ज्यादा हैं। इन चुनाव नतीजों से 2024 के लोकसभा चुनावों का नैरेटिव बनने की बात कही जा रही थी। उस लिहाज से निस्संदेह गुजरात में बीजेपी को मिली जीत बहुत बड़ी है। पिछले यानी 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को कांग्रेस ने कड़ी टक्कर दी थी। तब 268 विधायकों वाली विधानसभा में उसे 99 सीटें आई थीं, जो सरकार गठन के लिए आवश्यक संख्या (95) से मात्र चार ज्यादा थीं। स्वाभाविक रूप से माना जा रहा था कि अगर कांग्रेस थोड़ा और जोर लगा दे या बीजेपी थोड़ी सी लापरवाही दिखा दे तो चुनाव में उलटफेर हो सकता है। लेकिन न तो कांग्रेस ज्यादा जोर लगा पाई और न ही बीजेपी ने कोई चूक दिखाई।
नतीजा यह कि राज्य में 1985 में माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में बना 149 सीटों का रेकॉर्ड इस बार बीजेपी के हाथों टूट गया। हालांकि हिमाचल प्रदेश में हर पांच साल पर सरकार बदलने का रिवाज बना रहा, जिससे कांग्रेस की थोड़ी-बहुत लाज रह गई। इससे कम से कम कहने को उसे यह सहूलियत मिल गई कि स्कोर एक-एक का है। लेकिन इन चुनाव नतीजों से जो बड़ा संदेश निकला वह यही है कि चुनावी राजनीति में कांग्रेस को अगर सचमुच मुकाबले में रहना है तो उसे अपने तौर-तरीके बदलने पड़ेंगे। गुजरात में उसकी सीटों की संख्या ऐतिहासिक रूप से नीचे हो गई है, इससे भी बड़ी बात यह है कि वहां कांग्रेस लड़ती हुई दिखी भी नहीं।
भले ही भारत जोड़ो यात्रा के जरिए राहुल गांधी लंबी लड़ाई लड़ने की तैयारी दिखा रहे हों, इससे चुनावी लड़ाई के मोर्चे पर पार्टी की गैरहाजिरी की भरपाई नहीं होती। इसी बिंदु पर यह बात गौर करने लायक है कि आम आदमी पार्टी की एंट्री से गुजरात चुनावों में विपक्ष का एक नैरेटिव बनता हुआ दिखा। पार्टी सीटों के मामले में भले ही अपेक्षा से बहुत पीछे छूट गई हो, लेकिन बिजली, पानी, चिकित्सा और शिक्षा जैसे मसलों पर बेहतर गवर्नेंस का वादा करते हुए और मोरबी पुल हादसे के बहाने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हुए उसने विपक्ष का एक वैकल्पिक नैरेटिव तैयार किया।
पिछले चुनावों में उसकी कमी दिख रही थी। इसके साथ ही आप एक राष्ट्रीय पार्टी बन गई है। यानी विपक्षी खेमे में अब उसका अपना एक स्थान है। इस या उस पार्टी का वोट काटने वाली पार्टी के रूप में उसका उल्लेख अब उपयुक्त नहीं माना जा सकेगा। खुद आम आदमी पार्टी भी अगर इस तथ्य का ख्याल रखे और अपनी आलोचनाओं की धार विपक्षी खेमे की किसी पार्टी के बजाय सत्ताधारी पार्टी की ओर मोड़े तो इन विधानसभा चुनावों से विपक्षी राजनीति में तालमेल का एक नया सिलसिला शुरू हो सकता है, जिससे विपक्षी एकजुटता की मजबूत जमीन तैयार हो सकती है।