सुभाष चंद्र बोस का प्रभाव अभी तक मूल्यांकित नहीं हुआ
अभी देश ने आजाद हिंद फौज के 75 वर्ष धूमधाम से मनाए हैं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के 75 वर्ष पर भी व्यापक चर्चा हुई थी, मगर 1942 के निर्णायक आंदोलन को इस मुकाम तक ले आने में सुभाष चंद्र बोस का प्रभाव अभी तक मूल्यांकित नहीं हुआ है। कांग्रेस में 1942 के आंदोलन की जो धार है, वह सुभाष बाबू की आवाज है। करो या मरो, रास्ता चाहे जो हो, आजादी चाहिए। डोमेनियन स्टेट और उसके बाद स्वतंत्रता की क्रमश: विकसित होने वाली अवधारणा भारत को स्वीकार नहीं है। यह अवधारणा गांधी जी और कांग्रेस की अपेक्षा, सुभाष बाबू के विचारों के अधिक नजदीक थी।
भारत की आजादी का मसौदा सुभाष-गांधी प्रतिरोध की छाया में है
जुलाई 1942 में गांधी जी ने कांग्रेस कार्यसमिति के लिए जो मसौदा प्रस्तुत किया था, वह भारत की आजादी का मसौदा सुभाष-गांधी प्रतिरोध की छाया में है। इस मसौदे में गांधी जी ने स्पष्ट कहा कि 'भारत की स्वतंत्रता इस तरह न केवल भारत के हित के लिए, बल्कि विश्व की सुरक्षा के लिए और नाजीवाद, फासीवाद, सैन्यवाद, साम्राज्यवाद और जिस किसी वाद का जापान प्रतिनिधित्व करता है, उसकी समाप्ति के लिए आवश्यक है।' गांधी जी द्वारा इस प्रस्ताव का मसौदा तैयार करते समय जापान का उल्लेख केवल इसलिए नहीं है कि जापानी सेना तेजी से भारत की ओर बढ़ रही थी। जून 1942 में सुभाष बाबू के नेतृत्व में इंडियन नेशनल लीग का जापान में अधिवेशन संपन्न हुआ था और आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन प्रारंभ हो गया था।
कांग्रेस आजाद भारत की सत्ता को अपने नियंत्रण में रखना चाहती थी
आजाद हिंद सरकार को दुनिया के कुछ देशों द्वारा मान्यता देने की तैयारी हो गई थी। ऐसे में कांग्रेस द्वारा जापान को भारत का विरोधी और शत्रु प्रतिपादित किया जाना इसकी ओर संकेत करता है कि कांग्रेस आजाद भारत की सत्ता को अपने नियंत्रण में रखना चाहती थी। गांधी जी ने नौ जुलाई को अपना मसौदा जवाहरलाल नेहरू को भेजा था। नेहरू ने इसमें कुछ संशोधन किए थे। क्रिप्स मिशन की असफलता और भारत के आमजन में ब्रितानी सरकार के विरुद्ध उभर रहे आक्रोश तथा जापानी फौज की सफलता पर भारतीयों में संतोष के भाव की वृद्धि से जुड़ी पंक्तियां पंडित नेहरू ने जोड़ी थीं।
1942 का आंदोलन हिंसा और अहिंसा के विवाद से परे केवल समग्र आजादी का आंदोलन था
वर्ष 1942 में अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट के प्रतिनिधि कर्नल जानसन ने भारत से मित्र राष्ट्रों के साथ खड़ा होने की अपील करते हुए कहा था कि 'सदाशय भारतीयों, आप हम पर उसी प्रकार विश्वास रखिए, जैसे हम आप पर रखते हैं।' इन सभी बातों से एक बात निकलकर आती है कि युद्ध में जापान की लगातार बढ़त ने भारत की आजादी को अवश्यंभावी बना दिया था। आजादी के साधनों को लेकर नेता जी और गांधी जी के बीच जो विरोध था, वह भी भारत के आम जन की दृष्टि में बेमानी हो गया था। 1942 का आंदोलन हिंसा और अहिंसा के विवाद से परे केवल समग्र आजादी का आंदोलन था। यह बात दीगर है कि वायसराय लार्ड लिनलिथगो को पत्र लिखकर गांधी जी ने स्वयं को इस आंदोलन से अलग कर लिया था, किंतु समूची कांग्रेस और उसके नेताओं के समक्ष करो या मरो का प्रश्न खड़ा था।
आंदोलन कांग्रेस की पकड़ से बाहर
मुंबई कांग्रेस महासभा की बैठक के बाद नौ अगस्त की सुबह से आंदोलन कांग्रेस की पकड़ से बाहर हो गया था। यह जनता का आंदोलन हो गया था, जिसने अपने नए नेता बना लिए थे। अरुणा आसफ अली, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, राममनोहर लोहिया से लेकर चित्तू पांडे तक ऐसे नेता उभरकर सामने आए, जिन्हें डोमेनियन स्टेट की अवधारणा पर विश्वास नहीं था। जिन्हें अंग्रेजों के जाने के बाद भारत का क्या होगा, इसकी चिंता अंग्रेज करें, यह गवारा नहीं था। इन सबके पीछे कोई उद्दीपक शक्ति थी तो वह थी आजाद हिंद सरकार और आजाद हिंद फौज तथा सुभाष चंद्र बोस का आह्वान कि 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।' 1939 से 1943 तक भारत और दुनिया में भारत को लेकर जो कुछ घटित हो रहा था, उस पर सुभाष चंद्र बोस का बड़ा प्रभाव रहा।
सुभाष बाबू का भारत के आमजन पर गहरा प्रभाव था
भले ही साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, सैन्यवाद का प्रतिनिधित्व करने वाली उस काल की साम्यवादी शक्तियां नेता जी को 'तोजो का कुत्ता' जैसी गालियां दे रही हों, मगर नौ जुलाई से लेकर नौ अगस्त, 1942 तक गांधी, नेहरू और कांग्रेस के वैचारिक विमर्श में जिस प्रकार से ब्रितानियों से बड़ा शत्रु जापान को साबित करने की कोशिश की जा रही थी, वह नेता जी के प्रभाव को दर्शाती है, क्योंकि इसी समय सुभाष बाबू जापान में इंडियन नेशनल लीग और आजाद हिंद फौज के गठन के प्रयास कर रहे थे। उसका भारत के आमजन पर गहरा प्रभाव था। उसके प्रभाव में ही 1942 में क्रमिक आजादी की अवधारणा को नकार दिया गया और संपूर्ण आजादी की हुंकार भरी गई।