Corona Crisis: कोरोना माई की पूजा आस्था है या पाखंड, या फिर लोगों की लाचारगी और बेबसी?

Corona Crisis

Update: 2021-05-21 13:15 GMT

संयम श्रीवास्तव . मानव की प्रवृति (Human Nature) होती है कि जब वह किसी चीज पर विजय (Victory) हासिल नहीं कर पाता तो उसे अपना ईश्वर (GOD) मान लेता है. खासतौर से भारत (India) जैसे देश में, जहां हर कदम पर आपको आस्था (Faith) का एक नया रूप मिलेगा. देश में जब कोरोना (Corona) का कहर टूटने लगा और लोग लाशों के (Dead Body) ढेर में तब्दील होने लगे तब इस महामारी (Epidemic) को भी यहां देवी का रूप दे दिया गया है. तमिलनाडु (Tamil Nadu) में तो बकायदा कोरोना देवी के नाम से एक मंदिर (Temple) बना दिया गया है, जहां लोग परंपरागत तरीके से देवी की पूजा कर रहे हैं और उन्हें मनाने की कोशिश कर रहे हैं, कि किसी भी तरह से देवी लोगों को इस संकट से बचा लें. ऐसी घटनाएं पूर्वी यूपी, बिहार (Bihar) और असम (Assam) से पिछले साल से ही आ रही है. पूर्वी यूपी में और बिहार में महिलाएं सामूहिक रूप से कोरोना माई की पूजा कर रही हैं.


सोशल मीडिया (Social Media) में पूजा (Worship) करतीं महिलाओं को देखकर आप हंस सकते हैं पर ये तस्वीरें हंसने के लिए नहीं है, बल्कि सोचने के लिए हैं. यह सोचने के लिए कि क्या हम इतने बेबस और लाचार हो गए हैं. देश में प्रकृति पूजा (Worship Of Nature) इसलिए ही शुरू हुई होगी कि क्योंकि उसपर मनुष्य विजय नहीं प्राप्त कर सका. आग और नदी की पूजा शायद इसलिए ही शुरू हुई होगी, क्योंकि मनुष्य उसको नियंत्रित नहीं कर सका था. हमारा सारा ज्ञान-विज्ञान और विकास और उन्नति किस काम की जब हम अपनों को हर रोज मरता देख रहे हैं. पूरे परिवार को साफ होते देख और उसका कोई इलाज न होने की सच्चाई को अगर हम नहीं स्वीकार करते हैं तो हमें इसे पाखंड भी कहने का कोई अधिकार नहीं है.

तमिलनाडु में कोरोना माई का मंदिर
तमिलनाडु के कोयंबटूर में कामचीपुरी अधिनाम मंदिर का है. यहां लोगों को कोविड से बचाने के लिए कोरोना देवी की मूर्ति बनाई गई है. मूर्ति को ग्रेनाइट से बनाया गया है और इसे पवित्र करने के लिए विधि-विधान से पूजा की जा रही है और 48 दिनों की विशेष पूजा रखी गई है. साथ ही साथ महायज्ञ आयोजित किया जाएगा, जिसके दौरान लोगों को मंदिर में पूजा-अर्चना करने की अनुमति नहीं होगी. कहा जाता है कि इस मंदिर में विपत्ति से बचाने के लिए देवी-देवताओं की मूर्तियों को बनाने की परंपरा चली आ रही है. उदाहरण के लिए तमिलनाडु में ऐसे कई देवता हैं जैसे कोयंबटूर में प्लेग मरिअम्मन मंदिर. लोगों का मानना है कि देवताओं ने अतीत में प्लेग और हैजा के प्रकोप के दौरान नागरिकों की रक्षा की थी.

उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों में कोरोना माई की पूजा
धार्मिक दृष्टिकोण से उत्तर प्रदेश हिंदुस्तान का केंद्र बिंदु है. यहां तीर्थराज प्रयाग भी है और मोक्ष धाम वाराणसी भी, शायद इसीलिए जब इस सूबे को कोरोनावायरस ने अपनी गिरफ्त में लिया और यहां गांव में मौतों का मातम पसरने लगा तब घर की महिलाओं को बाहर निकलना पड़ा. और जिसे दुनिया महामारी का नाम देकर उसका इलाज ढूंढ रही है, उसे यह महिलाएं कोरोना माई का नाम देकर उसकी पूजा कर रही हैं और उसे मनाने की कोशिश कर रही हैं कि वह किसी भी तरह से उनके परिवार और उनके गांव को छोड़ दे बक्श दे.

सोचिए जहां दुनियाभर की मेडिकल व्यवस्थाएं इस महामारी को दूर करने के लिए तमाम प्रयास कर रही हैं, वहीं यह महिलाएं एक लोटे में जल और चार अगरबत्ती जलाकर इस महामारी को देवी का नाम देकर उसकी घंटों पूजा कर रही हैं. यूपी में ऐसी तस्वीरें पहले आजमगढ़ से आईं उसके बाद वाराणसी और कुशीनगर में यही देखने को मिला. पूजा कर रही महिलाओं का मानना है कि कोरोना माई इनसे नाराज हो गई हैं, यही वजह है कि वह तांडव मचा रही हैं. उनका कहना है कि अगर उन्हें पूजा पाठ करके मना लिया गया तो यह महामारी रुक जाएगी. ऐसी ही तस्वीर स्मृति ईरानी के संसदीय क्षेत्र अमेठी से भी आई है, अमेठी के पिंडोरिया गांव में कोरोना वायरस तेजी से अपना पांव फैला रहा है, इसकी वजह से वहां की महिलाओं ने अब कोरोना माई की पूजा शुरू कर दी है. उनका भी यही कहना है की माई नाराज हो गई हैं उन्हें पूजा पाठ करके बनाया जा सकता है.

क्या इससे रुकेगा कोरोना
सवाल उठता है कि क्या इन पूजा पाठ से कोरोनावायरस जैसी महामारी पर कोई असर पड़ेगा? जवाब है बिल्कुल नहीं. बल्कि इससे इस महामारी के और फैलने की आशंका जताई जा रही है. जहां-जहां भी ऐसे आयोजन किए गए और कोरोना माई की पूजा की गई, वहां देखा गया कि ना तो महिलाओं के चेहरे पर मास्क था और ना ही किसी ने सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया गया था. झुंड में महिलाएं एक साथ पूजा कर रही हैं. जिससे कोरोनावायरस के फैलने का खतरा काफी बढ़ जाता है. प्रशासन भी इस पर मौन है, शायद मन ही मन उसे भी लग रहा होगा कि कोरोना माई उनके द्वारा लिए गए एक्शन से नाराज ना हो जाएं, आखिर वो भी इसी समाज के ही अंग हैं. इसलिए वह हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं.

हालांकि बहुत पहले महामारी के समय इस तरह के कर्मकांड करने का मतलब समझ में आता था क्योंकि दवाएं और सुविधाएं आज के मुकाबले बहुत कम हुआ करती थीं. इसलिए इस प्रकार का कर्म कांड शुरू कराया जाता रहा होगा कि लोग हर रोज साफ-सफाई करें, करने स्नान करें. रोज कपड़े बदलें. किसी को चिकन पॉक्स हो जाता है तो लोग कहते हैं कि इनको माता निकल आई हैं. और विधिवत तरीके से 7 दिनों तक इसकी पूजा चलती थी. मरीज को अलग-थलग कर दिया जाता था. कोई उससे मिलता नहीं था. घर में खानपान सात्विक हो जाता था. शायद यह हमारी बेचारगी और लाचारगी ही है कि हम कोरोना वायरस के साथ भी ऐसा ही करने को मजबूर हैं. क्योंकि आज हम एक बार फिर उस परिवेश में हैं कि न दवा है और न अस्पताल में जगह है. सरकार खुद कह रही है कि घर में आइसोलेट रहिए. शायद यही कारण हमारे समाज में से इस तरह के कर्मकांडी परंपराएं बाहर निकलती हैं. मजबूरी में हम वैज्ञानिक सोच के बजाय इस तरह की धार्मिक सोच का सहारा लेते हैं.


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