भंवर में फंसी कांग्रेस : विधायकों के विद्रोह से आलाकमान को लगा भारी धक्का, अशोक गहलोत की धूमिल हुई छवि

यह भी आलाकमान के कमजोर होने का ही संकेत है।

Update: 2022-09-30 01:35 GMT

अभी हाल में राजस्थान कांग्रेस में जो कुछ भी हुआ, वह बिल्कुल ही अप्रत्याशित था, क्योंकि अशोक गहलोत गांधी परिवार के सबसे विश्वसनीय नेताओं में माने जाते थे। इसलिए सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष का अपना पद, जो बीस साल से उनके पास है, उन्हें सौंपने के लिए तैयार हो गई थीं। माना जाता था कि अशोक गहलोत गांधी परिवार के प्रति काफी वफादार हैं, जो कभी धोखा नहीं देंगे और उनके खिलाफ नहीं जाएंगे।

लेकिन जो राजस्थान में हुआ, उससे कांग्रेस आलाकमान को भारी धक्का लगा है, क्योंकि ऐसा दिख रहा है कि आलाकमान के सबसे विश्वसनीय नेता का हाथ बगावत के पीछे था। हालांकि अब अशोक गहलोत सफाई दे रहे हैं कि उन्हें मालूम नहीं था कि विधायक इस तरह से विद्रोह करेंगे, लेकिन कोई भी उनकी बात नहीं मान रहा है। दूसरी बात यह है कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने निर्देश दिया कि दिल्ली से भेजे गए दो पर्यवेक्षकों की निगरानी में कांग्रेस विधायकों की बैठक हो।
इसके पीछे विचार था कि दोनों पर्यवेक्षक एक-एक कर सभी विधायकों से बात करेंगे और एक पंक्ति का प्रस्ताव पारित कराएंगे कि सब कुछ कांग्रेस अध्यक्ष के हाथों में सौप दिया जाए। विचार था कि अशोक गहलोत को दिल्ली बुलाकर पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाए और सचिन पायलट को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाया जाए। यह वादा राहुल गांधी ने सचिन पायलट से 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले ही किया था।
फिर दिल्ली की जिंदगी और घर-बार छोड़कर सचिन पायलट वहीं जम गए। उन वर्षों में उन्होंने पूरे प्रदेश में भ्रमण किया था और गांव-गांव तक घूमे थे। खैर, पार्टी जीत गई और गहलोत को मुख्यमंत्री बना दिया गया। तब भी पायलट ने विद्रोह नहीं किया, क्योंकि उन्हें भरोसा दिया गया कि आपको आगे मुख्यमंत्री बनाएंगे। लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ, तो उन्होंने 2020 में गहलोत की सरकार गिराने की कोशिश की, जो नाकाम हुई, पर वह गहलोत के खिलाफ विद्रोह था।
संभवतः पार्टी आलाकमान का विचार था कि अगर चेहरा बदल दिया गया, तो सत्ता विरोधी रुझान कम हो जाएगा। सोनिया की यह पहल पार्टी के दोनों हाथ में लड्डू वाली रणनीति का हिस्सा थी। उनका विचार था कि सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने पर जनता के सामने एक युवा और नया चेहरा होगा, जिससे राज्य में पार्टी की स्थिति मजबूत हो सकती है।
और अशोक गहलोत चूंकि पुराने और मंजे हुए अनुभवी नेता हैं, जो कांग्रेस की कार्यप्रणाली और पूरे तंत्र को जानते हैं, देश को जानते और गांधी परिवार के प्रति बहुत वफादार रहे हैं, इसलिए उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद सौंपने का फैसला किया गया था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि अशोक गहलोत राजस्थान नहीं छोड़ना चाहते हैं। राष्ट्रीय नेतृत्व के निर्देश के बावजूद पर्यवेक्षकों के साथ विधायकों की बैठक नहीं हुई।
पर्यवेक्षक मुख्यमंत्री के आवास पर घंटों इंतजार करते रहे और विधायक राष्ट्रीय नेतत्व को चुनौती देने लगे। हालांकि अब गहलोत रक्षात्मक हो गए हैं। लेकिन कांग्रेस में इंदिरा गांधी या राजीव गांधी के जमाने में पहले ऐसा नहीं होता था कि केंद्र से पर्यवेक्षक जाए और उसे बैरंग लौटना पड़े। मुझे याद है, जीके मूपनार जब किसी राज्य में पर्यवेक्षक बनकर जाते थे, तो मुख्यमंत्री थर-थर कांपते थे।
पर्यवेक्षक यदि किसी मुख्यमंत्री को कहता था कि आपको इस्तीफा देना है, तो वह इस्तीफा देते थे। यदि कहा जाता कि एक पंक्ति का प्रस्ताव पारित करके आलाकमान पर फैसला छोड़ दीजिए, तो वैसा ही होता था। लेकिन राजस्थान में जिस तरह से सीधे-सीधे अपने ही लोगों द्वारा आलाकमान को चुनौती दी गई, यह दिखाती है कि कांग्रेस नेतृत्व कितना कमजोर हो गया है।
अब सवाल यह है कि सोनिया गांधी इस मसले को कैसे सुलझाएंगी और इस किस्से के बाद पार्टी अध्यक्ष कौन बनेगा। सोनिया गांधी से बैठक के बाद अशोक गहलोत ने अध्यक्ष का चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी और मुख्यमंत्री पद का फैसला सोनिया गांधी के ऊपर छोड़कर उन्होंने आलाकमान पर दबाव बना दिया है। जाहिर है, पार्टी नेतृत्व कमजोर हुआ है और इसकी मुख्य वजह है कि गांधी परिवार आज चुनाव नहीं जितवा पा रहा है।
लोग पार्टी छोड़कर जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि पार्टी का कोई भविष्य नहीं है और उनका भी भविष्य कांग्रेस पार्टी में नहीं है। असल में गांधी परिवार के साथ आज अच्छे मैनेजर नहीं हैं, अगर अच्छे मैनेजर होते, तो जो राजस्थान में हुआ, वैसा होता ही नहीं। यहीं अहमद पटेल की कमी खलती है। वह भांप लेते कि राजस्थान में अंदरखाने कौन-सी खिचड़ी पक रही है।
अब जबकि अध्यक्ष पद के लिए दिग्विजय सिंह ने भी अपना दावा पेश कर दिया है, तो देखना होगा कि पार्टी आलाकमान किसे आधिकारिक उम्मीदवार बनाती है। ऐसे में मैदान में दो ही चेहरे रहेंगे-शशि थरूर और दिग्विजय सिंह। दिग्विजय सिंह का पलड़ा भारी नजर आता है, क्योंकि वह अच्छे रणनीतिकार और राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं, पर उनके खिलाफ एक ही बात जाती है कि जब वह अध्यक्ष बनेंगे, तो भाजपा को उनके खिलाफ हिंदू ध्रुवीकरण करने का मौका मिल जाएगा और वह उनके पुराने बयानों को जोर-शोर से उछालेगी।
वैसे दिग्विजय सिंह के हिंदू साधु-संतों और कॉरपोरेट जगत से भी पुराने संबंध रहे हैं और वह दस साल तक मध्य प्रदेश में भाजपा को पछाड़कर मुख्यमंत्री रहे थे। आज के समय में कांग्रेस को जैसा अध्यक्ष चाहिए, उसमें वह फिट बैठते हैं। यह देखना होगा कि गांधी परिवार दिग्विजय सिंह को समर्थन देता है या किसी और को अध्यक्ष बनाता है। यदि दिग्विजय सिंह अध्यक्ष बनते हैं, तो वह रबड़ स्टांप नहीं होंगे, जैसा कि दूसरों के बारे में कहा जा सकता है। बहरहाल, अभी कांग्रेस में बहुत पेच है, जो कांग्रेस के संकट को दर्शाता है। अध्यक्ष पद के लिए पर्चा भरने में कुछ ही घंटे बचे हैं और अभी कुछ भी स्पष्ट नहीं है, यह भी आलाकमान के कमजोर होने का ही संकेत है।

सोर्स: अमर उजाला 

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