ब्रिटिश राजनीति के अंतर्द्वंद्व

पिछले कुछ वर्षों में ब्रिटिश राजनीति आप्रवासन और महंगाई जैसे मुद्दों पर अनिर्णय की स्थिति में रही है, जिसके चलते देश की अर्थव्यवस्था कमजोर और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है।

Update: 2022-10-22 05:24 GMT

ब्रह्मदीप अलूने: पिछले कुछ वर्षों में ब्रिटिश राजनीति आप्रवासन और महंगाई जैसे मुद्दों पर अनिर्णय की स्थिति में रही है, जिसके चलते देश की अर्थव्यवस्था कमजोर और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है। 2019 में तत्कालीन प्रधानमंत्री टेरीजा मे ने ब्रेक्जिट को लेकर यूरोपीय संघ के साथ समझौते को संसद से पास न करा पाने की वजह से इस्तीफा दिया था। फिर बोरिस जानसन प्रधानमंत्री बने थे।

उसके बाद कोरोना और रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजी समस्याओं का सामना ब्रिटेन की जनता को करना पड़ा। उनकी नीतियों को लेकर कंजर्वेटिव पार्टी में ही सवाल खड़े हुए और अंतत: उन्हें इस वर्ष जुलाई में पद से हटना पड़ा। उनके बाद कंजर्वेटिव पार्टी ने लिज ट्रस को अपना नेता चुना, जिनकी प्राथमिकता राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना, आप्रवासन और महंगाई को लेकर देश में बनी ऊहापोह की स्थिति को दूर करना था। राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना के अंतर्गत छियासठ लाख से ज्यादा लोग आते हैं, लेकिन उनका मुफ्त इलाज सुनिश्चित नहीं हो रहा है और इससे लोग नाराज हैं।

देश में सरकारी कर बढ़ाने की आशंकाओं के बाद सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी का विरोध बढ़ा है। इसका एक प्रमुख कारण कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर आपसी विवाद भी रहे हैं, जो राजनीतिक अदूरदर्शिता के रूप में सामने आते हैं।

यूरोपीय संघ से अलग होने के बाद ब्रिटेन को अपनी अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए आवश्यक था कि वह भारत से अपने व्यापारिक संबंधों को मजबूत करे। बोरिस जानसन ने भारत से व्यापारिक और सामरिक संबंध बढ़ाने में गहरी दिलचस्पी दिखाई थी। उम्मीद थी कि लिज ट्रस भी भारत से होने वाले मुक्त बाजार समझौते को तुरंत हरी झंडी दे देंगी। मगर हुआ इसके विपरीत।

भारत से संबंधों को लेकर कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर ही गहरे मतभेद सामने आ गए। लिज ट्रस के मंत्रिमंडल में गृहमंत्री रहीं सुएला ब्रेवरमैन ने भारत के साथ व्यापार समझौते को लेकर चिंता जाहिर कर ब्रिटेन में आने वाले भारतीयों की संख्या बढ़ने की बात कह दी। यूरोप में व्यापार के लिए भारतीय ब्रिटेन को द्वार समझते हैं और इसी कारण अधिकांश भारतीय व्यापारियों ने ब्रिटेन को ठिकाना बनाया हुआ है।

ब्रेक्जिट के पीछे ब्रिटेन के आम जन की मुक्त बाजार को लेकर बहुत महत्त्वाकांक्षाएं रही हैं और उसी नीति पर लिज ट्रस के आगे बढ़ने की उम्मीद थी। भारत के लिए ब्रिटेन एक महत्त्वपूर्ण आयातक देश है। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में भारत की कंपनियों की अहम भूमिका है। उनसे लाखों रोजगार जुड़े हुए हैं।

उच्च शिक्षा की दृष्टि से भारतीय छात्रों के लिए ब्रिटेन पसंदीदा देश है। जाहिर है, लिज ट्रस इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं थीं, लेकिन उनकी गृहमंत्री की अदूरदर्शिता का परिणाम यह हुआ कि भारतीय समुदाय में कंजर्वेटिव पार्टी के प्रति नाराजगी बढ़ी और इससे आने वाले आम चुनावों में कंजर्वेटिव पार्टी की सत्ता में वापसी की उम्मीदों को झटका लगा सकता है।

वास्तव में ब्रिटेन की राजनीतिक उथल-पुथल का प्रमुख कारण आप्रवासन से जुड़ी आशंकाएं हैं और उनका राजनीतिक समाधान करना आसान काम नहीं है। करीब पौने सात करोड़ आबादी वाले इस देश में प्रवासियों की संख्या अच्छी-खासी है। ब्रिटिश नागरिक बाहर से आए नागरिकों को लेकर आशंकित रहने लगे हैं। 2011 में ब्रिटेन में जनगणना के आंकड़े आए, तो उस पर भी यहां के परंपरावादी समाज में कड़ी प्रतिक्रिया देखी गई थी।

इसके अनुसार ब्रिटेन की जनसंख्या को 6 करोड़ 32 लाख बताया गया था, जिसमें ब्रिटेन के स्थानीय निवासियों का अनुपात 2001 की जनगणना के सतासी फीसद के मुकाबले घट कर अस्सी फीसद बताया गया था। इन आंकड़ों के अनुसार ब्रिटेन के मुख्य प्रांतों इंग्लैंड और वेल्स में हर आठवां व्यक्ति विदेश में जन्मा है। ब्रिटेन के जनसंख्या अनुपात में पिछले दस सालों में आए बदलाव के लिए मुख्य कारण आप्रवासियों का ब्रिटेन आना बताया गया।

दूसरे देशों से ब्रिटेन में आकर बसने वालों की बढ़ती संख्या से स्थानीय लोग प्रसन्न नहीं हैं। ब्रिटिश समाज मुक्त व्यापार के फायदों और अपने देश की आर्थिक प्रगति से ज्यादा आप्रवासन की उन चुनौतियों आशंकित हो गया है, जो पूर्वी यूरोप और गृहयुद्ध से जूझ रहे अरब तथा अफ्रीकी देशों से आ रही हैं।

यहां के निवासियों को लगता है कि यूरोपीय संघ में ज्यादा समय तक बने रहने से न केवल उनका सांस्कृतिक और सामाजिक परिदृश्य बदल जाएगा, बल्कि स्थानीय नागरिकों के सामने रोजगार और सुरक्षा का संकट भी गहरा सकता है। अब भारत को लेकर भी उनका यह व्यवहार सामने आ रहा है। ब्रिटेन के राजकीय अर्थशास्त्रियों ने ही उदारवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धांत गढ़े थे। इनमें एडम स्मिथ, रिकार्डो तथा माल्थस उल्लेखनीय हैं।

इन विद्वानों ने बाजारवादी अर्थव्यवस्था को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए कहा था कि बाजार में मांग और पूर्ति द्वारा एक स्वाभाविक सामंजस्य उत्पन्न हो जाता है तथा मुक्त व्यापार सभी के लिए लाभकारी है। इसके बाद यूरोपीय संघ की नींव राज्यों में आपसी व्यापार बढ़ाने के लिए रखी गई थी। मगर ब्रिटेन स्वयं उससे अलग हो गया।

गौरतलब है कि ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर भी यूरोपीय संघ से अलग होने या न होने को लेकर गहरे मतभेद रहे। 2016 से ईयू से अलग होने का ब्रिटेन का आंतरिक राजनीतिक अंतर्द्वंद्व बढ़ता गया, इसके साथ ही देश में बहुमत ईयू से अलग होने की ओर बढ़ता गया। इसका प्रभाव जनता पर पड़ना स्वाभाविक था।

यूरोपीय संघ में एकल बाजार सिद्धांत यानी किसी भी तरह का सामान और व्यक्ति बिना किसी कर या बिना किसी रुकावट के कहीं भी आ-जा सकने, बिना रोक-टोक के नौकरी, व्यवसाय तथा स्थायी तौर पर निवास कर सकने की आजादी के फायदे बहुत सारे थे। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में अव्वल स्थान पर रहने वाले यूरोपीय संघ को ब्रिटिश अलगाव के बाद नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, वहीं ईयू से अलग होने से ब्रिटेन को व्यापारिक रियायतें मिलने का मार्ग अवरुद्ध हो गया है।

इसका असर ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के साथ राजनीतिक रूप से भी देखने को मिल रहा है। देश में रोजगार के अवसर सीमित होने के साथ महंगाई बढ़ गई है। सरकार को मांग और आपूर्ति में पैदा हुए असंतुलन को दूर कर वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें नियंत्रित करना है। कर वृद्धि को लेकर लोग कंजर्वेटिव पार्टी की नीतियों से नाराज हैं। बोरिस जानसन के इस्तीफे का एक प्रमुख कारण यह भी रहा है।

सरकार ने दावा किया था कि करों में वृद्धि स्वास्थ्य और सामाजिक देखरेख के क्षेत्र में लगाई जाएगी। मगर विपक्षी लेबर पार्टी ने कहा कि कंजर्वेटिव सरकार द्वारा कामकाजी लोगों पर कर बढ़ाया जाना, दशकों में जीवन-यापन की चुनौतियों के बीच सबसे बुरा दौर है। लिज भी इस खराब दौर से देश को उबारने में नाकामयाब रहीं।

वैश्विक सहयोग और विविधता को स्वीकार न कर पाने के चलते उदारवादी लोकतंत्र, ब्रिटेन गहरे संकट में फंसता दिखाई दे रहा है। कंजर्वेटिव पार्टी का वैश्विक बदलावों के साथ सामंजस्य बिठा पाने में नाकामी अब देश में राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आ रही है। और मंदी से परेशान ब्रिटिश जनता देश में मध्यावधि चुनाव भी नहीं चाहती, लेकिन सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी के अंतर्द्वंद्व से देश की समस्याओं में इजाफा ही हो रहा है।


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