देवरस आधुनिक सोच रखते थे और उनके हिंदुत्व का मतलब भारतीय होना था। वाजपेयी को संघ से जोड़ने वाले बाला साहब देवरस ही थे और वाजपेयी भी भारतीयता के कट्टर हामी थे। हालांकि इस मसले पर सरसंघचालक गुरु गोलवलकर से देवरस के मतभेद थे। दोनों की राय इस बात पर भी मेल नहीं खाती थी कि आजाद हिंदुस्तान में संघ को राजनीतिक भूमिका निभानी चाहिए या नहीं। देवरस संघ को राजनीतिक रूप देना चाहते थे, पर गुरु जी इसके खिलाफ थे। इसके अलावा वह संघ में मुस्लिम समुदाय की सक्रिय भागीदारी के पक्के समर्थक थे। लेकिन उस दौर के आला नेता उनकी इस सोच से सहमत नहीं थे। यदि उस समय देवरस की बात मान ली जाती, तो संभवतः यह संगठन भारत का प्रतिनिधि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संगठन होता। फिर भी गुरु जी के निधन के बाद जब उनके लिखे सीलबंद लिफाफे खोले गए, तो उनमें से एक देवरस को अगला सरसंघ चालक बनाए जाने के बारे में था।
देवरस के इशारे पर ही लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में संघ के नौजवान कार्यकर्ता कूद पड़े थे। उन दिनों गोविंदाचार्य युवा थे और इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। दरअसल संघ के भीतर भी सदैव दो धाराएं रहीं। एक अनुदार और कठोर हिंदुत्व पर आचरण की समर्थक थी, तो दूसरी उदार, सहिष्णु तथा भारतीयता के समग्र सोच को मानती थी। बाला साहब देवरस, अटल बिहारी वाजपेयी और गोविंदाचार्य दूसरी धारा से जुड़े थे। विडंबना यह रही कि इस दूसरी धारा को संघ की प्रतिनिधि सोच नहीं माना गया, जबकि यह बदलते हिंदुस्तान की मांग थी।
कभी-कभी इतिहास के संवेदनशील मोड़ पर एक छोटा-सा गलत फैसला भी आगे एक बड़ी भूल साबित होता है। जब वाजपेयी ने अपने लेख में सहिष्णुता और भारतीयता का मुद्दा उठाया, तो बाला साहब देवरस ने भी इसका समर्थन किया था। पर यह कभी संघ के एजेंडे में परवान नहीं चढ़ सका। उल्टे बाला साहब देवरस और उनके उदारवादी साथी हाशिये पर जाते रहे। आज केंद्र में भाजपा की सरकार है और संघ की तूती बोलती है। संघ चाहे तो बाला साहेब देवरस के विचार से दूरी बनाए रख सकता है। फिर भी यदि मोहन भागवत कहते हैं कि भारत में रहने वाले हर व्यक्ति का डीएनए एक ही है और हर नागरिक भारतीय है, तो स्पष्ट है कि संघ देवरस दर्शन की राह पर चल पड़ा है।
सभी जानते हैं कि केंद्र और भाजपा शासित प्रदेशों में मुख्यधारा की राजनीति में संघ का असर या हस्तक्षेप बढ़ता ही जा रहा है। अब संघ यह नहीं कह सकता कि सक्रिय राजनीति से उसका कोई लेना-देना नहीं है। जब भाजपा और संघ के घनघोर विरोधी रहे अन्य दलों के नेताओं का भाजपा में स्वागत किया जा रहा हो, तो मान लेना चाहिए कि इन दोनों संगठनों का वैचारिक कायांतरण हो चुका है। तो फिर संघ स्वयं को भ्रम में क्यों रख रहा है? देवरस दर्शन और अटल बिहारी के विचार-संसार में तो वह दाखिल हो ही चुका है। तो फिर आम कार्यकर्ता को दुविधा में क्यों रखा जाना चाहिए?