अपने इतिहास के मुकाबले
ओलिंपिक का जादू ऐसा है कि दुनिया भले महामारी और मंदी से गुजर रही हो,
ओलिंपिक का जादू ऐसा है कि दुनिया भले महामारी और मंदी से गुजर रही हो, लेकिन जब ये खेल होते हैं, तो उनके जश्न भरे माहौल से बचना मुश्किल हो जाता है। टोक्यो में ओलिंपिक आशंका और चिंताओं से घिरे माहौल में हुए। कई आशंकाएं सच साबित हुईं। मसलन, जापान के स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने चेताया था कि इन खेलों का आयोजन कोरोना संक्रमण का सुपरस्प्रेडर साबित होगा। तमाम संकेत यही कहते हैं कि ऐसा सचमुच हुआ। खिलाड़ियों के मनोविज्ञान पर इस माहौल का गहरा असर हुआ। कई खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन इस वजह से नहीं कर पाए।
बहरहाल, उससे दुनिया के उत्साह पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ा। भारत ने बेशक इन खेलों सर्वाधिक सफलता हासिल की। एक स्वर्ण पदक के साथ कुल सात पदक भारत ने इतिहास में कभी नहीं जीते थे। इसके पहले सर्वाधिक छह पदक 2012 के लंदन ओलिंपिक खेलों में मिले थे। इस लिहाज से भारत में इन सफलताओं को लेकर लोगों का उत्साहित होना स्वाभाविक है। लेकिन इस सफलता को सही संदर्भ में रखा जाना चाहिए। सर्वाधिक सफलता अपने इतिहास के मुकाबले ही है। या फिर अगर हम अपने नजरिए को संकुचित करें और सिर्फ दक्षिण एशियाई देशों से अपनी तुलना करें, तब भी हमारी कामयाबी गौरवान्वित करने वाली लगती है। लेकिन अगर निगाह दुनिया के पूरे मानचित्र पर रखें, तो फिर नजर यह आता है कि बहामा और कोसोवो जैसे देशों, जिनकी आबादी 20 लाख से कम है और जिनकी अर्थव्यवस्था हमसे छोटी है, वे पदक तालिका में हमसे ऊपर हैँ।
असल में हमसे ऊपर ऐसे देशों की कोई कमी नहीं है। चीन से तो खैर अब हम मुकाबले की सोच ही नहीं सकते हैं, जिसकी ताकत परिस्थितियों, अर्थव्यवस्था और आबादी में अभी तीन दशक पहले तक हमारे बराबर ही थी। चूंकि अपने ऐसे पिछड़ेपन पर चर्चा चार साल में सिर्फ एक बार होती है, इसलिए अभी ऐसी चर्चाओं का भी कुछ हासिल नहीं होगा। और जिस समय देश में माहौल हर क्षेत्र में अपनी तुलना अपने हालिया इतिहास से ही करने और उस इतिहास से बदला लेने का हो, उस वक्त ऐसी चर्चा पर बहुत से लोग ध्यान देंगे, इसकी उम्मीद भी नहीं है। जिस समय चलन नाकामी में भी सफलता गढ़ कर नैरेटिव तैयार करने का हो, उस समय टोक्यो ओलिंपिक जैसी असली सफलताओं को उचित संदर्भ में रखने की कोशिश मुमकिन है कि राष्ट्र-द्रोह भी मानी जाए। मगर सवाल है कि उससे आगे क्या हासिल होगा?