अचानक सभी मुर्दे कब्रों से बाहर आ गए, यह देखकर कब्रिस्तान की देखभाल कर रहा व्यक्ति भी हैरान था। वह इसे ऐतिहासिक घटना मान रहा था और सोचने लगा कि अगर इसी तरह कब्रें मुर्दाविहीन हो जाएं, तो कितनी आसानी से इतिहास को बदला जा सकता है। मुर्दे जब कब्र में डाले गए थे, तो एकदम संवेदनहीन होकर और सपनों के मरने से मरे थे, लेकिन यह कैसी नौबत आ गई कि कब्रें अब मुर्दों को विचलित कर रही हैं। हम अपने जीवन में अस्तित्व की खोज करते हैं या इसकी रक्षा में दुनिया को परेशान करते हैं, लेकिन एक मुर्दा ही है जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता, लेकिन आज कब्रों से बाहर आ गए सभी मुर्दों को अस्तित्व की चिंता है। दरअसल जिस दिन से अपने देश में एक दूसरे के लिए एडवांस में कब्र खोदने की प्रतियोगिता शुरू हो गई है, कब्रें कांपने लगी हैं। कांपती कब्रों में मुर्दा कैसे शांति से सो सकता है। आज तक यूं तो कोई जान नहीं सका कि क्या शांति का ताल्लुक कब्र से है या कब्र के कारण हम शांत हो सकते हैं। जो भी हो मुर्देे पहली बार बोल रहे थे, ‘भले ही देश को रामभरोसे चला लो, लेकिन कब्र को कब्र बनाए रखने के लिए तो कम से कम देश की व्यवस्था को सुधार लो।’ यहां मसला देश की व्यवस्था से कहीं ज्यादा इतिहास का था। कब्रिस्तान की देखभाल कर रहे व्यक्ति ने मुर्दों को समझाया कि वे कब्र में लौट जाएं, लेकिन जब वे किसी तर्क पर नहीं माने तो उसने मीडिया को बुला लिया। यह मीडिया के लिए भी एक अवसर था। वैसे भी मीडिया अब जिंदा के बजाय मुर्दा मुद्दों को कब्र से बाहर निकालने में पारंगत है। मीडिया संवाद के कब्रिस्तान तो वैसे भी बनने लगे हैं, लेकिन पहली बार मुर्दे खुद लाइव हो रहे थे। मुर्दों की गुमनामी में भी मीडिया को ऐसी खबर ढूंढनी थी जिससे उसके प्रायोजक, आयोजक और आका खुश हो जाएं, लेकिन उसे आशंका यह हो रही थी कि यहां भी पता नहीं किस युग के मुर्दे निकल आएंगे।
देश का यह प्राचीनतम कब्रिस्तान था और वहां नेहरू-इंदिरा युग से पहले आजादी के दौर के भी मुर्दे सही सलामत थे। प्रश्न कानून व्यवस्था का था, इसलिए प्रशासन को भी बुला लिया गया ताकि जो मीडिया को समझ न आए, उसे सरकार का पक्ष समझा दे। मुर्दों के बीच देश का प्रोटोकाल मीडिया, प्रशासन और सरकार को एक दूसरे का पूरक बना चुका था। मुर्दों के बीच देश की व्यवस्था, देश की पैरवी, देश की सुरक्षा, आत्म सम्मान देख रहे पत्रकार, प्रशासनिक-पुलिस अधिकारी प्रसन्न थे कि अगर मुर्दों से ही किसी तरह देश का पक्ष मिल गया, तो प्रोमोशन हो जाएगी। मीडिया और प्रशासन के सामने सभी मुर्दे बोलने लगे, ‘इतिहास हमसे शरारत करने लगा है। कभी हमारे कपड़े उठा कर देखता है, तो कभी नोच के देखता है। हमारे पास आकर कान में अंगुली करके हमसे नारेबाजी करवाना चाहता है। आप ही बताएं मरे हुए लोग इतिहास के पक्ष में कैसे नारे लगाएं।’ उन्हें सरकार व मीडिया की ओर से प्रशासन समझा रहा था कि देश को अब कब्रों में सोए मुर्दों का इतिहास ही भविष्य बता सकता है। यह सुनकर वहां कुछ ताजे गाड़े गए मुर्दे भी जाग गए। ये सभी आपसी विद्वेष में एक दूसरे को मार कर मरे थे। वे भविष्य के लिए प्रशासन का साथ देना चाहते थे, लेकिन पहले से ही कब्रों से बाहर आए मुर्दों ने एक न सुनी। तभी अंतिम कब्र हिली। वह इतिहास का मुर्दा था, लेकिन इतिहास उसे पहचान नहीं रहा था। इतिहास का मुर्दा भी इतिहास से डर कर भागने लगा। देखते ही देखते सारे मुर्दे भाग गए, लेकिन प्रशासन और मीडिया को आशा थी कि आइंदा जो मुर्दे आएंगे, वे इतिहास के लिए सदा-सदा कब्र में सोए रहेंगे। इस तरह देश मुर्दों पर भविष्य और इतिहास की परिकल्पना करने लगा।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal