जनता से रिश्ता वेबडेस्क। प्रदूषण पर सजा के साथ जागरूकता भी जरूरी हाल ही में दिल्ली-एनसीआर में जानलेवा होते प्रदूषण पर देश की शीर्ष अदालत ने सख्त टिप्पणियां करके सरकार से कुछ कारगर करने को कहा था। यह पहला मौका नहीं था कि अदालत ने प्रदूषण के भयावह संकट पर तल्ख टिप्पणी की थी। मगर केंद्र व राज्यों के दावे-प्रतिदावे के बावजूद समस्या का ओर-छोर नजर नहीं आ रहा था। हर साल अक्तूबर-नवंबर में यह समस्या जटिल हो जाती है। ठंड की शुरुआत में वायुमंडल की वायु के घनीभूत होने से प्रदूषित वायु निचली सतह में रह जाती है और प्रदूषण की स्थिति जानलेवा बनने लगती है। कहने को तो पराली जलाने का शोर मचाकर ठीकरा किसानों के सिर फोड़ने का प्रयास होता है, मगर प्रदूषण की समस्या को समग्र रूप में नहीं देखा जाता। जैसा कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि सरकार जल्दी ही प्रदूषण नियंत्रण के लिये सख्त कानून लायेगी। बुधवार को राष्ट्रपति ने केंद्र सरकार द्वारा इस बाबत लाये गये अध्यादेश को मंजूरी दे दी जो दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण नियंत्रण के लिये वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग के गठन का मार्ग प्रशस्त करता है। यह आयोग पहले से सक्रिय पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम एवं नियंत्रण) प्राधिकरण की जगह लेगा। आयोग के नये प्रावधानों में अब प्रदूषण फैलाना साबित होने पर पांच साल की सजा और एक करोड़ तक के जुर्माने का प्रावधान है जो दिल्ली -एनसीआर, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान व पंजाब में प्रदूषण फैलाने वालों पर कार्रवाई कर सकेगा। आयोग को प्रदूषण रोकने, उपाय सुझाने, निगरानी करने तथा कार्रवाई करने का अधिकार होगा। आयोग शिकायत पर स्वत: संज्ञान लेते हुए अदालत के जरिये मामले में कार्रवाई कर सकेगा। दरअसल, नये आयोग को अधिकार संपन्न बनाया गया है। आयोग को दिशा-निर्देश देने, शिकायत पर स्वत: संज्ञान लेने, बिजली आपूर्ति रोकने तथा दोषी संस्था या उद्योग पर कार्रवाई करने का अधिकार होगा। साथ ही यह प्रदूषण के सभी कारकों पर निगरानी रखेगा। दरअसल, अब तक प्रदूषण नियंत्रण के लिये बने आयोग व संस्थाएं पुराने ढर्रे पर ही काम करती चली आ रही थीं। जाहिर है केंद्र सरकार उनके काम से संतुष्ट नजर नहीं आ रही थी। वास्तव में वायु प्रदूषण की समस्या को समग्र रूप से देखने की जरूरत है। हमारी जीवनशैली में बदलाव के चलते सड़कों पर वाहनों का सैलाब, उद्योगों की स्वच्छंदता और जवाबदेही का अभाव तथा पर्यावरणीय बदलावों की भी प्रदूषण के बढ़ने में बड़ी भूमिका रही है। वहीं निर्माण उद्योग में पर्यावरणीय मानकों का ध्यान न रखना भी इसकी एक वजह है। कोशिश इस बात की भी होनी चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण से जुड़े तमाम आयोग व संस्थाएं समस्या के निराकरण के लिये साझे प्रयास करें। यहां यह पड़ताल करनी भी जरूरी हो जाती है कि पहले के आयोग लक्ष्य हासिल करने में असफल क्यों हुए। उनके अनुभवों से सबक लेते हुए आगे रणनीति तैयार की जानी चाहिए। यह कह देने से दिल्ली-एनसीआर का प्रदूषण संकट पराली जलने से उपजा है, समस्या का तार्किक समाधान नहीं हो जाता। एक तो सिर्फ पराली ही समस्या का कारक नहीं है, दूसरे हम किसान को उसकी पहुंच में शामिल विकल्प नहीं देते। उसे व्यावहारिक विकल्प देकर जागरूक किया जाना चाहिए। दरअसल, कृषि की बदली हुई परिस्थितियों में पराली किसान के लिये अनुपयोगी है और खेतों में मानवीय श्रम की भूमिका कम हुई है। खासकर कोरोना संकट में श्रमिकों की उपलब्धता न होने से पराली जलाने की घटनाएं कई गुना अधिक हुई हैं। केवल किसान ही नहीं, समाज के हर वर्ग को जागरूक करने की जरूरत है। यह एक हकीकत है कि प्रदूषण नियंत्रण के लिये आयोग बनाने, कड़ी सजा व जुर्माने से समस्या का अंतिम निदान संभव नहीं है। इसमें हर नागरिक की भूमिका होनी जरूरी है। दिल्ली तथा निकटवर्ती राज्यों की सरकारों को भी समस्या के समाधान के लिये समग्रता में प्रयास करने होंगे। टुकड़ों-टुकड़ों में की गई कोशिश कभी भी पूर्णता के परिणाम नहीं दे सकती। नीतियां दीर्घकालीन लक्ष्यों को ध्यान में रखकर ही बनायी जानी चाहिए।