जलवायु सम्मेलन में भारत की ओर से यह बात उचित ही सामने आई है कि भारत को न्यूक्लियर सप्लायर गु्रप (एनएसजी) में शामिल किया जाए। हां, परमाणु ऊर्जा कोयला जनित ऊर्जा का मजबूत विकल्प हो सकती है, लेकिन परमाणु ऊर्जा के लिए हमारे पास यथोचित संसाधन नहीं हैं। संसाधन इसलिए नहीं मिल रहे, क्योंकि भारत एनएसजी में नहीं है। भारत एनएसजी में इसलिए नहीं है, क्योंकि यहां उसकी राह में चीन रोड़ा है। वह कभी नहीं चाहेगा कि भारत की परमाणु ताकत बढ़े या भारत हरित ऊर्जा के मामले में कामयाब देश हो जाए। भारत की ओर से एनएसजी सदस्यता की बात बिल्कुल सही समय पर सामने आई है। जी-20 की बैठक में शामिल होने के लिए चीन के राष्ट्रपति आए ही नहीं, लेकिन भारत की शिकायत उन तक जरूर पहुंची होगी। भारत का परमाणु रिकॉर्ड बहुत अच्छा है, लेकिन इसके बावजूद चीन बाधा बन रहा है। अमेरिका बहुत पहले से सहमत है कि भारत को एनएसजी की सदस्यता मिलनी चाहिए। ध्यान रहे, भारत में 281 कोल पॉवर प्लांट हैं, जबकि 28 तैयार हो रहे हैं और 23 अन्य प्रस्तावित हैं। कोयला भारत की मजबूरी है और चीन की भी। चीन में तो 1,000 से ज्यादा प्लांट हैं और लगभग 250 प्लांट निर्माणाधीन हैं। अत: चीनी राष्ट्रपति का रोम या ग्लासगो न पहुंचना बहुत आश्चर्य का विषय नहीं है।
आज जलवायु व पृथ्वी को बचाने के लिए बड़े और शक्तिशाली देशों का सहमत होना ज्यादा जरूरी है। जी-20 देशों के नेता कोयले से बिजली बनाना खत्म करने के बारे में किसी तरह की आश्वासन नहीं दे सके हैं। भारत जैसे कई देश कह चुके हैं कि वे कोयले का इस्तेमाल बंद नहीं करेंगे। भारत ने तो कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए लक्ष्य तय करने तक से इनकार कर दिया है। भारत की स्थिति छिपी नहीं है, विकास तेज करने के लिए भारत को सस्ती ऊर्जा चाहिए। सस्ती ऊर्जा से अगर हम दूर जाएंगे, तो गरीबी और भूख से कैसे मुकाबला करेंगे? कमोबेश ऐसी ही मंशा दूसरे देशों की भी है। जो विकसित है, उसे और धन की तमन्ना है और जो पिछड़ा या विकासशील है, उसे अपने विकास की चिंता सताने लगी है। अचरज नहीं कि इटली के रोम में हुआ जी-20 सम्मेलन विशेष प्रगतिशील कदम साबित नहीं हो पाया, क्योंकि दुनिया के सबसे ताकतवर 20 देश कोई बड़ा वादा नहीं कर पाए।