जलवायु परिवर्तन : जंगलों में लगी आग से उठते सवाल, मुख्य लड़ाई तापक्रम कम करना
तो जंगलों में लगी आग को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी।
जलवायु परिवर्तन से मुख्य लड़ाई तापक्रम कम करना और जल संसाधनों को मात्रा व गुणवत्ता में बचाए रखना है। देश और विश्व के परिप्रेक्ष्य में उत्तराखंड के जलते जंगल इस लड़ाई को कमजोर करते हैं। वर्ष 2000 में उत्तराखंड के राज्य बनने के बाद लगभग 50 हजार हेक्टयर वन भूमि वनाग्नियों की भेंट चढ़ चुकी है। वैसे इन दिनों राजस्थान के अलवर जिले के सरिस्का के जंगलों में लगी आग को बुझाने के लिए सेना के हेलीकॉप्टर तक बुलाने पड़े हैं। छत्तीसगढ़ के भी कई इलाके इन दिनों जंगलों में लगी आग से जूझ रहे हैं। जाहिर है, जंगलों में लगी आग एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है।
उत्तराखंड का 71 प्रतिशत क्षेत्र (38,000 वर्ग किलोमीटर) वन क्षेत्र है। इनमें वन्य जीव अभयारण्य, संरक्षित दुर्लभ वानस्पतिक उद्यान, घोषित पारिस्थितिकीय संवेदनशील क्षेत्र और ग्लेशियर्स हिम पोषित गंगा, यमुना व उनकी सहायक नदियों के उद्गम क्षेत्र भी हैं, जो वनाग्नियों से आपदाग्रस्त हो जाते हैं। भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने 2020 में कहा कि खेती के अपशिष्टों को जलाने और जंगलों की आग से गंगोत्री ग्लेशियर को खतरा पैदा हो रहा है। उत्तराखंड में जंगलों में लगने वाली आग का मौसम और तीर्थयात्रियों तथा पर्यटकों का मौसम आपस में गूंथ जाते हैं। राजमार्गों व शाखा मार्गों तक पहुंची वनाग्नि पर्यटन, तीर्थाटन व स्थानीय जन की आजीविकाओं को प्रभावित करती है।
मार्च, 2022 में जिला चमोली के बदरीनाथ वन प्रभाग के मध्य पिंडर रेंज थराली में जब तीन दिन से लगातार जंगल जल रहे थे, तब जिन्हें फील्ड व जीरो ग्राउंड पर होना था, वे देहरादून, पौड़ी और गोपेश्वर जैसे नगरों में सेमीनारों, प्रशिक्षणों और बैठकों के नाम पर जुटे थे, यह वाकई दुखद है। वास्तव में उत्तराखंड में 2016 और 2021 के वनाग्नि मौसम से काफी कुछ सीखा जा सकता है। 2016 के जाड़ों में उत्तराखंड अभूतपूर्व वनाग्नियों के चपेट में था।
वायुसेना के हेलीकॉप्टरों का तब वनाग्नि शमन के लिए उपयोग हुआ था। इसी तरह अक्तूबर 2020 में वनों में आग लगनी शुरू हो गई थी, जो फरवरी, 2021 तक जारी रही। फरवरी मध्य से तो उत्तराखंड के जंगलों में वनाग्नि का औपचारिक मौसम ही शुरू हो जाता है। अक्तूबर, 2020 से अप्रैल, 2021 के दौरान जंगलों में आग लगने की करीब एक हजार घटनाएं हुईं और चौदह सौ हेक्टेयर जंगल क्षेत्र आग की चपेट में आ गया। राज्य के 13 जिलों में कोई भी जिला ऐसा नहीं था, जहां आग न लगी हो। खेतों व आवासीय इलाकों में भी आग पहुंची।
गौशालाओं तक पहुंची वनाग्नियों से पालतू पशु भी हताहत हुए। रात-रात भर जागकर आग बुझाने की कोशिश करते ग्रामीण भी झुलसे। आग बुझाने के लिए पहली बार एमआई हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल किया गया। वनाग्नि को नियंत्रित करने में सरकार के कथित नाकाम रहने को अदालत तक में चुनौती दी गई। नैनीताल हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान संज्ञान में यह भी लाया गया था कि 2016 के हाई कोर्ट के गांवों के स्तर पर वनाग्नि प्रबंधन के लिए समितियां गठित करने के दिशा-निर्देशों का उस समय तक भी पालन नहीं हुआ था।
नब्बे साल पुरानी अन्य कहीं न पाई जाने वाली उत्तराखंड की सामुदायिक वन पंचायत प्रणाली के सरकारीकरण से भी वनाग्नियों से सामुदायिक लड़ाई कमजोर पड़ी है। अंग्रेजी हुकूमत ने खासकर कुमांऊ- गढ़वाल के पर्वतीय क्षेत्रों में वनों पर सरकारी स्वामित्व स्थापित करने के जब प्रयास आरंभ किए थे, तब ग्रामीणों ने जगह-जगह इसका विरोध करना शुरू कर दिया था। इन आंदोलनों के कारण ही 1930 में वन पंचायत प्रणाली लागू की गई थी।
वनाग्नि के कारकों को नियंत्रित करने के लिए वांछित है कि जैसे, किसी प्रशासनिक या पुलिस अधिकारी पर उसके क्षेत्र में होने वाले सांप्रदायिक दंगों की जिम्मेदारी तय होती है, वैसे ही वनाधिकारियों को भी अपने-अपने वन क्षेत्रों में वन तस्करी, अग्निकांडों आदि के लिए जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए। वांछित यह भी है कि वन विभाग वन क्षेत्रों में नमी बनाए रखने, वहां के तालाब जैसे जलस्रोतों के रख-रखाव के लिए भी जिम्मेदार हो। वनों में यदि काफी नमी मौजूद रहेगी, तो जंगलों में लगी आग को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी।
सोर्स: अमर उजाला