उपहारों का चक्र

बेचना भी एक कला है। त्योहारों का मौसम हो तो ‘सेल’ यानी कम कीमत पर सामानों की बिक्री की बात तो कुछ और ही हो जाती है। ‘सेल’ से सामान खरीदी का अपना ही सुख है।

Update: 2022-11-03 06:06 GMT

ललिता जोशी: बेचना भी एक कला है। त्योहारों का मौसम हो तो 'सेल' यानी कम कीमत पर सामानों की बिक्री की बात तो कुछ और ही हो जाती है। 'सेल' से सामान खरीदी का अपना ही सुख है। कोई भी व्यापारी अपनी जेब से कुछ भी नहीं नहीं देता। लेकिन इस तरह से सामान बेचने और खरीदने का नशा तो किसी लत को टक्कर देता है।

जैसे शराब को देखकर शराबी को हुड़क उठती है, वैसे 'शोपोहोलिक्स' यानी की खरीदारी में आनंद लेना। सामान की जरूरत हो या न हो, लेकिन खरीदारी करनी ही है। कुछ नहीं तो उपहार बांटने के नाम पर खरीदी करना। त्योहार कोई भी हो, आज उपहार देना और लेना एक परंपरा बन चुकी है। बहुत अच्छा लगता है उपहार लेना और देना, खासतौर पर त्योहारों के मौके पर। बाजार पटे पड़े हैं उपहारों से। कीमत क्या हो, इसकी कोई सीमा नहीं। बाजार में सौ रुपए से लेकर करोड़ों रुपए कीमत के उपहार उपलब्ध हैं। जिसकी जैसी जेब, वह वैसा ही उपहार खरीद कर भेंट करता है। या फिर जिसका जैसा रसूख, उसको वैसा ही उपहार भेंट स्वरूप दिया जाता है।

आजकल उपहार देना एक रणनीति भी है। किसी का सबसे ऊंचा अधिकारी है तो उपहार की गुणवत्ता और कीमत बेहतरीन होनी ही है, क्योंकि अफसर प्रसन्न तो आसमान नीचे, हम ऊपर। या अफसर ऐसी सीट पर हैं, जहां आम जनता से सीधे संवाद करने की स्थिति है तो कहना ही क्या! अफसर के साथ कर्मचारी की भी मौज। साहब या बास का निजी कर्मचारी आम लोगों और अन्य कर्मचारियों के बीच वही भूमिका अदा करता है जो पुजारी भक्त और भगवान के बीच करता है।

सालभर के बड़े-बड़े त्योहारों पर उपहार देने और दिलाने की परंपरा अक्सर एक पंथ दो काज की कहावत को सिद्ध करती है। चमकीले लुभावने कागजों में लिपटे बंद पड़े पुराने पैकेटों को भी सांस लेने की जगह मिल जाती है, क्योंकि सतत विकास और पुनर्चक्रण या रीसाइकलिंग के दौर में इन पैकटों को पुनर्चक्रण कर सम्मान सहित दूसरे ठिकानों पर सप्रेम विदा कर दिया जाता है। ऐसे उपहार बहुत आम श्रेणी के होते हैं या फिर ऐसे कि उनकी कीमत मामूली-सी हो। इस सतत प्रक्रिया में दूसरे उपहारभोगी भी अपने पैकेटों को खुद ही मुक्त कर इन पैकेटों को दूसरे पते पर रवाना कर देते हैं। बेचारे उपहार 'म्यूजिकल चेयर' की तरह हो जाते हैं।

महंगे, बेशकीमती उपहार मालिक की शान बढ़ाते हैं और ऐसे उपहारों को घर और समाज में रुतबा मिलता है। बड़े-बड़े कारोबारी ऐसे उपहार देते हैं या फिर उन्हें ऐसे उपहार मिलते हैं जो कई बार सुर्खियों में आ जाते हैं। एक कहावत है- 'जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान', ठीक इसी तरह उपहार की कीमत नहीं, उसे देने वाले की भावना देखी जाती है। लेकिन आज आदमी का रुतबा देखकर ही उपहार दिया जाता है और उसकी कीमत भी उसी प्रकार होती है। दीपावली पर दिया जाने वाले उपहारों में सबसे लोकप्रिय उपहार होती है सोनपापड़ी, जो चौकीदार की तरह कई घरों का फेरा लगाती है। पूरे सौरमंडल की परिक्रमा कर डालती है सोनपापड़ी और बेचारी की गति होती है 'कभी इस पग पर कभी उस पग पर बजता ही रहा घूंघरू की तरह।' ऐसा ही हाल सोनपापड़ी की तरह बहुत से उपहारों का होता है।

बाजार और भौतिकवादी उपभोग की प्रवृत्तियों और ऐश्वर्य के आडंबरपूर्ण प्रदर्शन के कारण आज संबंधों का स्वरूप बदल चुका है। प्रत्येक रिश्ते की कीमत उपहार से निर्धारित और नियंत्रित होती है। रस्मों में उपहार, दिवस के उपहार, मातृ दिवस, पितृ दिवस, मित्रता दिवस उपहार आदि न जाने कितने ही अवसर हैं जब उपहारों से प्रेम का प्रदर्शन न किया जाता हो। अब उपहार से यारी निभाई जाती है। उपहार नहीं तो जीवन वीरान।

इसकी चमक-दमक के समक्ष रिश्ते फीके पकवान हो गए हैं। अक्सर खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि फलां-फलां युवक चोरी करते हुए पकड़ा गया, जिसमें कारण होता है प्रेमिका को तोहफा दिलाना। उस पर तुर्रा ये कि प्रेमिका को भी भली प्रकार ज्ञात होता है कि दोस्त उसको ये उपहार खून-पसीने की कमाई से नहीं, बल्कि चोरी की कमाई से दे रहा है।

इतना ही नहीं, सामाजिक मूल्यों में इतनी गिरावट आई है कि आज अगर माता-पिता बच्चों को कुछ दिलाने से इनकार कर दें तो उन पर बच्चे भावनात्मक दबाव बनाते हैं या फिर कुछ ऐसा काम कर दे सकते हैं की परिवार तबाह हो जाते हैं। बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा उपहार। आप क्या जानें उपहार की कीमत? उपहार आज दरअसल उप-हार बन कर रह गया है। त्योहारों के बहाने उपहारों की विदाई से घर हल्का हो जाता है और हम आत्मश्लाघा से गद्गद हो जाते हैं कि हम कितने उदारमना हैं कि बिना किसी पूर्वाग्रह के उपहारों को जनवितरण प्रणाली के तहत बांटते हैं! कैसा दौर है कि यह महंगाई भी इन उपहारों पर भारी नहीं पड़ती है!


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