विसंगतियों का चुनाव
वे उनके सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने, नागरिकों की राजनीतिक जागरूकता और आर्थिक हालात से भी देश-दुनिया को रूबरू कराते हैं।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। विधानसभा चुनाव राज्यों के सिर्फ राजनीतिक रुझान का पता नहीं देते, वे उनके सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने, नागरिकों की राजनीतिक जागरूकता और आर्थिक हालात से भी देश-दुनिया को रूबरू कराते हैं। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान में अब सिर्फ सात दिन रह गए हैं। तमाम प्रत्याशी अपने जन-संपर्क अभियान में जुटे हुए हैं, लेकिन इन क्षेत्रों के उम्मीदवारों से जुड़ा एक तथ्य बिहार की विडंबना को गहराई से उजागर कर रहा है। इन 71 सीटों से अपनी किस्मत आजमा रहे प्रत्याशियों ने चुनाव आयोग में जो हलफनामा पेश किया है, उसके मुताबिक, 153 उम्मीदवार करोड़पति हैं और वे एक करोड़ से लेकर 53 करोड़ की मिल्कियत के मालिक हैं। दोनों मुख्य गठबंधनों ने बड़ी तादाद में करोड़पतियों में भरोसा जताया है। एनडीए के जहां करीब 60 प्रतिशत प्रत्याशी करोड़पति हैं, तो वहीं महागठबंधन के 58 फीसदी। ये आंकडे़ सोचने को बाध्य करते हैं कि चंद महीने पहले जिस प्रदेश के लाखों लोग गरीबी के कारण पैदल ही अपने गांव के लिए सड़कों पर निकले पडे़ थे, उसके नुमाइंदे कितने 'संपन्न' लोग होंगे!
एक दौर था, जब देश चिंतित हो उठा था कि हमारी विधायी संस्थाएं बाहुबलियों और दागी लोगों का अखाड़ा बनने लगी हैं, मगर उसकी इस बेचैनी को शासन-व्यवस्था ने समझा और स्थिति पर लगाम लगाने के वैधानिक तरीके भी निकाले गए। इसकी वजह से कई सारे लोग चुनाव लड़ने से वंचित हुए, कई की सदस्यता रद्द हुई, मगर न्यायिक-प्रक्रिया की शिथिलता के कारण आज भी बड़ी संख्या में दागी चुनावी राजनीति में सक्रिय हैं। भारतीय लोकतंत्र के समक्ष अब नई चुनौती धनबल के रूप में खड़ी हो रही है। निस्संदेह, धनाढ्यों को भी राजनीति में आने, अवाम की सेवा करने का पूरा-पूरा अधिकार है। ऐसी नजीरें हैं कि आजादी के बाद कई लोगों ने अपनी दौलत लुटाकर जनसेवा के पथ को चुना था। मगर वह दौर काफी पीछे छूट चुका है। जो अनुपात अब दिख रहा है, वह एक किस्म के सामाजिक असंतुलन को अधिक प्रतिबिंबित करता है। बिहार की ही नजीर लें। जिस राज्य की सालाना प्रति-व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से एक तिहाई से भी कम हो, वहां की राजनीति में आर्थिक रूप से संपन्न तबके का दबदबा स्थापित हो जाए, तो यह स्थिति जनतंत्र से ज्यादा धनतंत्र की ताकत को दर्शाती है। हमारी सरकारी नीतियों में जन-संवेदनशीलता की कमी के पीछे बड़ी वजह यह भी है।
बिहार से आए इन आंकड़ों का एक गौरतलब पहलू यह भी है कि राज्य के जिन इलाकों में ये 71 सीटें हैं, वे एक लंबे समय तक सामंती उत्पीड़न, नक्सली हिंसा की जद में रहे हैं और राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन में शामिल वाम पार्टियां इन्हीं क्षेत्रों में ज्यादा मजबूती से लड़ भी रही हैं। मगर यह परिदृश्य गहन समाजशास्त्रीय अध्ययन की मांग करता है कि बिहार में आर्थिक विषमता की खाई घटी है या बढ़ी है? आखिर क्यों बिहार के ज्यादातर नेता तो करोड़पति हैं, मगर उनके मतदाता पेट भरने के लिए दूसरे राज्यों में भटकने को मजबूर? इसमें कोई दोराय नहीं कि बिहार महिलाओं के लोकतांत्रिक सशक्तीकरण में देश में अग्रणी भूमिका में है। पिछली विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार काफी अधिक तादाद में महिला उम्मीदवार मैदान में हैं। फिर इस सूबे की आर्थिक छवि क्यों नहीं बदल रही?