बचपन की गुलेल
जब बहुत छोटा था और मिडिल स्कूल में पढ़ रहा था; तब अनजाने में कुछ ऐसी भूलें हुईं, जिन्हें आज याद करके मन दुखी हो जाता है। हालांकि जब कभी अपना दुख मित्रों के बीच प्रकट किया, तो सबने समझाया कि वह तुम्हारा बचपना था, नादानी थी।
गिरीश पंकज: जब बहुत छोटा था और मिडिल स्कूल में पढ़ रहा था; तब अनजाने में कुछ ऐसी भूलें हुईं, जिन्हें आज याद करके मन दुखी हो जाता है। हालांकि जब कभी अपना दुख मित्रों के बीच प्रकट किया, तो सबने समझाया कि वह तुम्हारा बचपना था, नादानी थी। जानबूझ कर तो तुमने ऐसा नहीं किया। फिर भी मुझे लगता है, आखिर क्यों किया ऐसा? एक दिन कोई मित्र एक गुलेल लेकर आया। गुलेल में पत्थर फंसा कर उसने दूर पेड़ पर निशाना साधा। एक चिड़िया घायल होकर नीचे गिर गई। मित्र के साथ मैं भी चिड़िया की तरफ दौड़ा। तब तक चिड़िया दम तोड़ चुकी थी। गुलेलधारी मित्र प्रसन्न होकर बोला, 'देखा! कितना अचूक निशाना है मेरा। ले, तू भी निशाना साध।'
मैंने भी गुलेल थाम ली और पास के पेड़ पर निशाना लगाया, लेकिन कोई चिड़िया नहीं गिरी। अलबत्ता पेड़ पर बैठे पंछी फुर्र से उड़ गए। फिर हम वापस घर लौट आए। मगर दिमाग में यह बात घर कर गई कि मुझे भी गुलेल खरीदनी है। बाजार जाकर गुलेल खरीद लाया और फिर पेड़ों पर बैठे पक्षियों पर निशाना साधने लगा। मगर एक बार ही निशाना सटीक बैठा। एक चिड़िया नीचे गिर गई। मैं बहुत खुश हुआ। मित्र मिला तो उसे बताया कि मैंने भी एक चिड़िया मारी। अब हम दोनों मित्र समय-समय पर आसपास के पेड़ों पर बैठे पक्षियों पर निशाना लगाने लगे। पेड़ों पर पत्थर पड़ते ही सारे पक्षी उड़ कर दूर कहीं चले जाते। मगर कभी-कभार एकाध पक्षी पत्थर खाकर नीचे भी गिर जाता और हमें लगता हमने बहुत बड़ा तीर मार लिया है।
यह सिलसिला एक-दो वर्षों तक चलता रहा। बरसात के समय सड़कों पर केकड़े चलते देखते, तो उन्हें बूट से कुचल दिया करते। राह चलते किसी कुत्ते के पिल्ले को एक लात जमा देते, तो वह कांय-कांय करता भाग खड़ा होता। हम अपनी 'बहादुरी' पर बड़े प्रसन्न होते। आसपास खड़े कुछ बड़े लोग हमें प्रोत्साहित भी करते कि 'शाबाश! जबरदस्त निशाना साध रहे हो। लगे रहो।' हम खुश हो जाते। कुछ बड़े हुए तो अचानक यह भाव जागा कि आखिर मैं यह क्या कर रहा हूं। नन्हे पक्षियों की जान लेना, केकड़े को कुचलना, पिल्लों को सताना गलत बात है। सोचने लगा, अगर गांधीवादी पिता को पता चलेगा, तो वे क्या सोचेंगे कि जिस बेटे को मैं करुणा का पाठ पढ़ाता रहा, वह हिंसा करके खुश हो रहा है?
मासूम जीवों की जान लेना कोई बहादुरी तो नहीं है। जब यह आत्मबोध आया, तब मैंने गुलेल से तौबा कर ली और अपने दूसरे मित्रों को भी मना करना शुरू किया। लेकिन मित्र कहां मानने वाले थे। तब मैंने उन्हें समझाया और कहा, 'अगर निशानेबाजी का इतना ही शौक है तो हम पेड़ पर बैठे पक्षी क्यों, फलों को भी तो निशाना बना सकते हैं!'
मेरी बात मित्रों को समझ में आई और वे फलों पर निशाना साधने लगे। हाई स्कूल पार करके हम कुछ गुलेलबाज मित्र कालेज की पढ़ाई करने अलग-अलग शहरों की ओर चले गए। फिर बरसों बाद मिले, तो बचपन के दिनों को याद करने लगे। अब सबके मन में इस बात को लेकर गहरा अपराधबोध था कि हमने बचपन में कितनी नादानियां कीं। मासूम जीवों को गुलेल का शिकार बनाया, या फिर बेवजह किसी कुत्ते के पिल्ले को लात मार दी। कभी बाहर खड़ी किसी गाड़ी या साइकिल की हवा निकाल दी। ऐसी हरकतें करते हुए बचपन में हम प्रसन्न होते थे। लेकिन आज उन्हीं सब हरकतों को याद करके दुख होता है। आज भी जब कभी कोई बच्चे को हाथ में गुलेल लिए देखता हूं, तो मैं उसे समझाता जरूर हूं कि कभी भूल कर भी किसी पक्षी या किसी जीव को अपना निशाना मत बनाना। यह पाप है। हिंसा है।
अच्छी बात है कि प्रेम से समझाने पर बच्चे मान जाते हैं। मैं सोचता हूं कि बचपन में हमें गुलेल चलाते हुए देखने वाले लोग अगर प्रेम से समझाते, डांटते-फटकारते, तो हो सकता है, हम कभी पंछियों को निशाना बनाने की भूल न करते।
आज सोचता हूं कि बालपन में बच्चे जो शरारतें करते हैं, सब नादानी में ही करते हैं, लेकिन अगर उन्हें ढंग से समझाया जाए, तो वे किसी भी किस्म की गलत शरारत बिल्कुल नहीं करेंगे। इसलिए बच्चों के मन में जीव दया की भावना विकसित करने के लिए जरूरी है कि पहली कक्षा से ही ऐसे पाठ पढ़ाया जाएं, जिनमें पशु-पक्षियों से प्रेम करने का संदेश हो। छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से यह सीख आसानी से दी जा सकती है। बचपन की सीख बड़े होने तक मन-मस्तिष्क में कायम रहती है। कोई बच्चा किसी पिल्ले को पकड़ कर इधर से उधर पटक रहा है। गाय या कुत्ते को पत्थर मार रहा है। अपने किसी बालमित्र को बेवजह पीट रहा है, तो सख्त हिदायत देता हूं कि किसी को मत सताना। मैं उन्हें टोकता हूं और एक तरह से बचपन की बालपन की अपनी नादानियों पर पश्चात्ताप करता हूं।