यह भी सवाल हो सकता है कि उनके मुख्यमंत्री रहने का प्रदेश की सेहत पर क्या असर था और हटने पर क्या असर होगा? क्या देहरादून का सीएमओ पिछले चार साल से पीएमओ याकि प्रधानमंत्री दफ्तर का विस्तारित दफ्तर, एक्सटेंशन आफिस नहीं था? याद करें नारायण दत्त तिवारी, भुवनचंद खंडूरी, रमेश पोखरियाल, हरीश रावत जैसे मुख्यमंत्री चेहरों को और त्रिवेंद्र सिंह रावत को! या गौर करें पंजाब के अमरेंदर सिंह बनाम बगल के जयराम ठाकुर के चेहरे पर या हरियाणा के मनोहर लाल खट्टर बनाम राजस्थान के अशोक गहलोत पर या उद्दध ठाकरे बनाम देवेंद्र फड़नवीस पर या तरूण गोगोई बनाम सर्बानंद सोनोवाल के चेहरों और उनके मतलब पर! क्या मोदी राज में बनाए गए भाजपा मुख्यमंत्रियों में कोई एक भी अपने बूते प्रदेश में पार्टी को चुनाव जितवाने वाली हैसियत बना रहा है?
नहीं, कतई नहीं। सब नरेंद्र मोदी पर आश्रित हैं। सभी प्रधानमंत्री दफ्तर की योजनाओं, गाइडलाइन से निराकार रूप में, कठपुतली अंदाज में संचालित हैं। ऐसा 2014 से पहले नहीं था। तभी अपनी जगह तथ्य है कि मोदी राज से पहले के शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे या रमन सिंह आज भी अपने चेहरे के साथ राजनीतिक आधार, वोट और इमेज का बल लिए हुए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि ये आडवाणी के वक्त, भाजपा-संघ के सामूहिक फैसले से बने थे और हाईकमान, विधायकों, कार्यकर्ताओं, जनता सबका जिम्मा लिए हुए थे। सबके प्रति जवाबदेह थे। किसी को नौकरशाही, अफसरों ने नहीं चलाया, बल्कि अपने बूते धीरे-धीरे वैसे ही बने जैसे गुजरात में वाजपेयी-आडवाणी के मौका देने पर नरेंद्र मोदी बने थे। मौका पाते अपने बूते नेता बने थे तभी इनका प्रदेशों में अभी भी विकल्प नहीं है।
ठीक विपरीत त्रिवेंद्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत का चेहरा क्या बताता हुआ है? एक मुख्यमंत्री रावत का जाना और दूसरे रावत का मुख्यमंत्री बनना ऐसे है मानो अफसर का आना-जाना हो। विधायकों ने, पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने एक मुख्यमंत्री से तौबा की तो दिल्ली के प्रधानमंत्री दफ्तर ने दूसरा वैसा ही निराकार चेहरा कुर्सी पर बैठा दिया, जिसे उसे सिर्फ और सिर्फ मोदीजी की कृपा से कुर्सी पर बैठे रहना है। त्रिवेंद्र सिंह रावत बिना पैंदे के थे। उन्होंने सत्ता पर बैठने के बाद भी विधायकों, पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं से घुलमिल कर काम नहीं किया तो सांसद से सीएम बने तीरथ सिंह रावत क्या कर लेंगे, इसकी सहज कल्पना कर सकते हैं। आर्श्चय जो नरेंद्र मोदी को पल भर भी सोचने की जरूरत नहीं हुई कि एक सीएम हटाने और नया बनाने से प्रदेश की राजनीति, लोगों पर, भाजपा की दीर्घकालीन सेहत पर क्या असर होगा? पहली बात तो त्रिवेंद्र सिंह का असर था ही नहीं जो असर पर सोचा जाए। आखिर उत्तराखंड भी वह एक्टेंशन सेंटर है, जिसमें मोदीजी जैसे राज करते है वैसे मुख्यमंत्री को करना है। उनकी योजना प्रदेश की योजना, उनके नारे मुख्यमंत्री के नारे। मतलब चिकित्सा भले राज्यों का मामला, मुख्यमंत्रियों का दायित्व हो लेकिन आयुष्मान भारत से ले कर टीकाकरण का काम जब नरेंद्र मोदी के चेहरे के सर्टिफिकेट से ही होना है तो जैसे मुख्य सचिव वैसे मुख्यमंत्री।
इस हकीकत को इस तरह समझा जाए कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने अपनी सत्ता, सीएम पद की धमक, अवसर, संसाधन में आप पार्टी, अपनी इमेज, जनता को मैसेजिंग के छह सालों में जितने जैसे प्रयोग किए हैं वैसा नेतृत्व क्या त्रिवेंद्र सिंह रावत, मनोहर लाल खट्टर दे पाए? तभी लोकतंत्र और आजादी की 75वीं वर्षगांठ के पूर्व 138 करोड़ लोगों का देश वापिस दिल्ली सल्तनत की उस सत्ता की प्रतिलिपि बन रहा है, जो मुगल या अंग्रेजों के वक्त थी। मतलब हुकुम बादशाह का, इच्छा-पसंद-फैसला बादशाह का तो सूबों में सिपहसालार, सूबेदार कभी त्रिवेंद्र सिंह तो कभी तीरथ सिंह! तब लाल किले के दिवाने खास के हाकिम बादशाह के कान भरते थे, राय बनवाते-बिगड़वाते थे और औरंगजेब बिहार, दक्खन, गुजरात में सूबेदार बैठाता-हटाता था अब नई दिल्ली की रायसीना पहाडी के प्रधानमंत्री दफ्तर में फैसला होता है कि किस प्रदेश में कौन हुकुमउदुली करने वाला। दिल्ली में एक बादशाह और बाकी सभी मंत्री, सांसद, जनता सब ताबेदार तो वैसे ही राजनीतिक संस्कृति प्रदेशों में, दिल्ली से जो नियुक्त हुआ वह अपने सूबे का मालिक तो क्यों लोकतंत्र के तकाजे में राजनीतिक तौर पर, विधायकों, नेताओं, पार्टियों की चिंता करने वाला हो। तभी आजादी की 75वीं वर्षगांठ जब मनाई जाएगी तो दुनिया निश्चित विचार करेगी कि 21वीं सदी का हिंदू राज मुगल राज वाली दिल्ली सल्तनत के चरित्र से कितना भिन्न है और यदि है तो कितना?