Vijay Garg: रातरानी की ख़ुशबू से महका हुआ आलम व आकाश से छनकर आती चांदनी को जब क़रीब से महसूस किया तो लगा, हृदय धीरे-धीरे आश्वस्त होता जा रहा है. डॉ. सिद्धार्थ अपने ही नेमप्लेट डॉ. सिद्धार्थ वर्मा, एम.ए (हिन्दी) पी.एच.डी. को अपलक निहारते हुए अपनी कहानी के पात्रों की आंतरिक व्यथा को स्वयं किरदार बन टटोलने का प्रयास तो कर रहे थे, पर पारों की भावनाओं को अपने हृदय से आंकने का उनका सामर्थ्य समाप्त होता जा रहा था.
उपन्यास के सारे किरदार पूरे १० दिनों से जैसे डॉ. सिद्धार्थ की भावनाओं को झकझोरते हुए प्रार्थना कर रहे थे कि उनके निष्क्रिय होते जा रहे स्वरुप को हलचल प्रदान कर दें, लेकिन डॉ. सिद्धार्थ विवश हो गए थे. दुविधाग्रस्त मन व अपराधबोध से भरा मस्तिष्क जब उनकी कॉलम का साथ नहीं दे पा रहा था. व्हीलचेयर लिए डॉ. सिद्धार्थ बरामदे में आ गए.
प्रकृति इंसान को हर व्यथा से मुक्ति देने का सामर्थ्य रखती है. सोचते-सोचते डॉ. सिद्धार्थ ने प्रयास किया कि वे मुस्कुरा ले. किन्तु आंखों से दो बूंद आंसू निकलकर गालों पर लुढ़क ही गए. अनायास ही इच्छा होने लगी कि चीत्कार कर रो लें, लेकिन आशुतोष किसी भी पल लौट सकता था. पता नहीं सिद्धार्थ के आंसुओं का वो क्या अर्थ लगाए. अपनी ६५वीं वर्षगांठ मना चुके डॉ. सिद्धार्थ को इस उम्र में एक ऐसी विपत्ति का शिकार होना पड़ेगा, जिसके लिए उन्हें अपने पुत्र से मदद मांगनी होगी, ऐसा तो उन्होंने सोचा भी न था.
मन की बेचैनी बढ़ने लगी, तो डॉ. सिद्धार्थ व्हीलचेयर की मदद से पुनः अंदर आ गए. अपने अधूरे उपन्यास के पृष्ठों को थोडा सा उलट-पुलट कर देखा. सारे किरदार उनकी इच्छा, आकांक्षा के अनुरूप यथास्थान खड़े थे, पर जाने क्यों डॉ. सिद्धार्थ को लगा कि जैसे वे अपने अस्तित्व को संपूर्णता प्रदान करने हेतु गुहार भी लगाए जा रहे है.
डॉ. सिद्धार्थ ने पूरी ताक़त से अपने हाथ को टेबल पर दे मारा और इस विश्वास से आश्वस्त भी हो गए कि अपनी इस प्रतिक्रिया से उन्होंने अपने हृदय की स्थिति को अपने कथा पात्रों के आगे उजागर कर दिया है व अब कुछ पलों के लिए उनके कथा पात्र उनसे कोई उम्मीद न रखेंगे. क्यों जीता है कलाकार अपनी कल्पनाओं में, तुलिका या लेखनी के माध्यम से अपने कथा पात्रों से जाने कैसा रिश्ता जुड़ जाता है उसका. अपने आपसे लड़ता-झगड़ता, रूठता-मनाता, रोता-हंसता कलाकार क्यों अपनी भावनाओं में एक अलग संसार रचता है? क्यों नहीं आंक पाता है एक कलाकार उस दूरी को जो कल्पनाशीलता और यथार्थवादिता के बीच है. कल तक अपनी भावनाओं में जीने वाले महान उपन्यासकार डॉ. सिद्धार्थ आज यथार्थवादिता के घरातल पर जाते ही टूट से गए हैं.
अपनी नन्हीं सी प्रशंसिका तृप्ति से अपने निस्वार्थं स्नेह पर उन्हें कभी कोई खेद नहीं हुआ था. शायद इसलिए कि उन्होंने कभी यह सोचा ही नहीं था कि तृप्ति उनसे अपने प्रेम का प्रतिदान मांगेगी. बगैर सोचे-समझे वो २० वर्षीया युवती एक ६५ वर्षीय पुरुष की अर्धांगनी बनने की ज़िद कर बैठेगी.
डॉ. सिद्धार्थ ने तृप्ति के साथ के अपने भावनात्मक रिश्ते में उम्र की सीमा को लेकर कोई विवाद खड़ा नहीं किया था. लेकिन तृप्ति की आकांक्षाओं ने डॉ. सिद्धार्थ को कई ऐसी सच्चाइयों से अवगत करा दिया, जिन्हें शायद वो जान-बूझकर नज़रअंदाज़ करते जा रहे थे.
आज डॉ. सिद्धार्थ यह सोचकर आत्मग्लानि में दबे जा रहे थे कि उन्होंने तृप्ति को कभी यह क्यों नहीं बताया कि वे अपनी मृत पत्नी से जितना प्यार करते हैं, उतना संसार की किसी और नारी से नहीं कर पाए हैं, न ही कर पाएंगे. तृप्ति को क्यों नहीं इस सच्चाई से अवगत करा दिया था कि उनके पुत्र आशुतोष से बढ़कर उनका और कोई दायित्व नहीं है.
डॉ. सिद्धार्थ ने तो अपनी कोई बात की ही नहीं. वो तो सदैव तृप्ति से या तो अपनी प्रशंसा सुनते रहें या तृप्ति की छोटी-छोटी व्यथाओं पर अपनी स्नेह वाणी से चंदन लेप लगाते रहे. तृप्ति को स्वयं डॉ. सिद्धार्थ ने यह कभी नहीं बताया कि वे अपाहिज़ हैं. सालों पहले आई लंबी बीमारी ने उनसे चलने-फिरने का सामर्थ्य छीन लिया था. डॉ. सिद्धार्थ की मंशा तृप्ति को छलने की कदापि नहीं थी, बल्कि उन्होंने तो इन सब बातों की स्वयं भी कभी बहुत ज़्यादा महत्व नहीं दिया था. किन्तु जाज अनायास ही लगने लगा था कि कहीं न कहीं कुछ ग़लती तो उनसे भी हुई है. १५ दिनों पहले ही तो तृप्ति का फोन आया था. हर शब्द जैसे अक्षरशः याद है उन्हें. एक सप्ताह के अंतराल के बाद उस रोज़ तृप्ति का मधुर खनकता स्वर डॉ. सिद्धार्थ के कानों में जैसे मिश्री-सा घोल गया था.
"अरे तृप्ति, कहा थी तुम अब तक?" प्रफुल्लित होते हुए डॉ. सिद्धार्थ ने पूछा था.
"आप तो ख़ुश हो रहे होंगे कि पिछले एक सप्ताह मैंने आपको फोन पर परेशान नहीं किया."
खिलखिलाकर हंस दि