जिस दिन होली है, उस दिन आठ मार्च भी है, यानी महिला दिवस. बचपन से होली के दिन पुरुषों को औरतों के हाथों डंडों, छड़ियों, कोड़ों और चुनिंदा गालियों से पिटते देखती आयी हूं. संसार में शायद ही कोई त्योहार हो, जिसमें पुरुष पिटते हों और हंसते हों. लगभग यही हाल महिला दिवस का है. चालीस साल से अधिक समय से महिला मुद्दों पर लिखती, बोलती, आंदोलनों में भी भाग लेती आयी हूं.
सत्तर-अस्सी के दशक में जब हमारे यहां महिला मुद्दों ने अपनी जगह बनानी शुरू की, तब कई महिला संगठन बने और महिला मुद्दों पर उनकी आवाज सुनाई देने लगी. धरने, प्रदर्शन होने लगे. तब आठ मार्च को अक्सर बड़े-बड़े जुलूस निकलते थे. तब सबसे प्रमुख नारा था- हर जोर जुलुम की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है. मंच पर उन दिनों की महिला नेत्रियां, जैसे बृंदा करात, प्रमिला दंडवते, विमला रणदिवे, विमला फारुकी, मृणाल गोरे आदि छायी रहतीं. चूंकि तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं, तो इन नेताओं द्वारा सबसे अधिक हमले उन्हीं पर किये जाते कि एक महिला प्रधानमंत्री के होते हुए भी औरतों की कितनी दुर्दशा है.
जबकि श्रीमती गांधी के समय में ही स्टेटस ऑफ वीमेन रिपोर्ट आयी थी. औरतों की शिक्षा-दीक्षा के प्रबंध भी उस काल में बहुत हुए. यह भी गौरव की बात थी कि श्रीमती गांधी अपने देश की प्रधानमंत्री 1966 में बन गयी थीं. स्त्री अधिकारों का पाठ पढ़ाने वाले और उपदेशक अमेरिका में आज तक कोई स्त्री राष्ट्रपति नहीं बन सकी है. स्त्रियों के लिए जिस ग्लास सीलिंग को तोड़ने की बात की जाती है, वह तो हमारे यहां तब की टूट गयी.
कहते हम भले ही यह रहें कि भारत में औरतें बहुत बुरी हालत में रहती हैं तथा यहां औरतों को कोई अधिकार ही नहीं. रोना चाहें, तो हर बात पर रो सकते हैं. लेकिन क्या वाकई अपने देश में औरतों की स्थिति वही है, जो हमारी दादी, नानी के समय या राजा राम मोहन राय के समय थी. यदि औरतों की वास्तविक स्थिति जाननी हो, तो दफ्तर और बाजारों में उनकी उपस्थिति को देखना चाहिए. किसी भी कार्यक्षेत्र में स्त्री की उपस्थिति का अर्थ है कि वह पढ़ी-लिखी है, आत्मनिर्भर है.
उसकी योग्यता के अनुसार काम उसे मिला है. इसी तरह बाजार में यदि बहुसंख्य स्त्रियां दिख रही हैं, तो इसका मतलब है कि उनके पास पर्स है. उनकी जेब में पैसे हैं. वे अपनी मनपसंद चीज खरीद सकती हैं, खा सकती हैं, पैसे चुका सकती हैं, यानी अपनी पसंद के बहुत से निर्णय खुद ले सकती हैं. बाजार और दफ्तर के बारे में बातें करने से कुछ और बातें भी सामने आती हैं, जैसे- लड़कियां पढ़ें, इस बात की स्वीकृति समाज में हो चली है.
न केवल पढ़ें-लिखें, बल्कि आत्मनिर्भर भी बनें. वे अपनी मनपसंद चीजें खरीद सकें, यानी आत्मनिर्णय कर सकें. सच मानिए, तो ये कोई छोटे बदलाव नहीं हैं. इस बात को कोई ज्यादा वक्त नहीं हुआ कि महिलाएं अपनी छोटी से छोटी जरूरत के लिए अपने पति या पति के परिवार पर निर्भर रहती थीं. जो कुछ ला दिया जाता था, उसी में संतोष कर लेती थीं. बाजार की शक्ल तो कभी-कभार मेले-ठेलों के वक्त ही देख सकती थीं, वह भी छह हाथ के घूंघट में.
लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई, आत्मनिर्भरता की बात शहरों को पीछे छोड़ गांव के घर-घर जा पहुंची है. इन दिनों गांवों से बड़ी संख्या में लड़कियां शहरों की तरफ पढ़ने आती हैं. न केवल शहरों, बल्कि शिक्षा और नौकरी के लिए विदेशों की तरफ रुख कर रही हैं. मीडिया और सोशल मीडिया लगातार इन बातों की गवाही दे रहा है. चीजें उलट गयी हैं. अब शादी प्राथमिकता में नहीं रही.
पहले शिक्षा, रोजगार, बचत, घर, कार, घूमना-फिरना, फिर अगर मन करे तो शादी. एक यात्रा साइट बताती रहती है कि इन दिनों बड़ी संख्या में लड़कियों और महिलाओं के ऐसे ग्रुप बन गये हैं, जो समूह में या अकेले ही घूमने जा रही हैं. ये बातें पैराडाइम शिफ्ट को भी इंगित कर रही हैं. इस आत्मनिर्भर, आत्मनिर्णयकारी स्त्री को देखकर राजनीति भी अपना चेहरा बदलने की सोच रही है. हर चुनाव में दलों के घोषणा पत्र स्त्रियों के लिए तरह-तरह के वायदों से भरे रहते हैं.
कई बार संगठन स्त्रियों के घोषणा पत्र अलग से जारी करते हैं. स्त्रियां समाज में बहुत से बदलावों की भी मजबूत कड़ी बन रही हैं. उदाहरण के लिए, सरपंच बनकर वे गांवों में बदलाव ला रही हैं, स्कूल बनवा रही हैं, आंगनबाड़ी केंद्रों को खुलवा रही हैं. स्कूलों में मध्याह्न भोजन ठीक और पौष्टिक तत्वों से भरा हो, इस बात की देख-रेख कर रही हैं. यहां तक कि खेती-किसानी के रूप बदल रही हैं. नौकरियां छोड़कर स्टार्टअप खोल रही हैं. और कुछ ही सालों में सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए न केवल अच्छी कमाई कर रही हैं, बल्कि बहुत सी स्त्रियों को रोजगार भी दे रही हैं.
लेकिन बाजार ने जिस तरह से स्त्री विमर्श के नारों को हड़प लिया है, उस तरफ भी हमारा ध्यान जाना चाहिए. एक बुद्धिमती स्त्री के मुकाबले एक छैल-छबीली, सजी-संवरी स्त्री ही असली सशक्त स्त्री है, यह बात भी औरतों के दिमाग में भरी जा रही है. ऐसा स्त्री विमर्श क्यों चाहिए, जो किसी के लाभ कमाने के विमर्श में जा फंसे, जहां औरत को इसलिए सुंदर दिखना है कि वह पुरुषों की कामनाओं को जगा सके, वे उसके सपने देख सकें.
औरतों का एकमात्र काम तमाम कॉस्मेटिक्स का इस्तेमाल कर बस पुरुषों को आकर्षित करना रह जाए. औरतों की अपनी स्वायत्तता और स्वतंत्रता को व्यापार अक्सर ऐसे विचारों से पीछे धकेलता है. क्या सिर्फ सुंदर और आकर्षक दिखना ही महिलाओं का काम है! तब पुराने जमाने से आज तक क्या विचार बदला, जहां स्त्री की एकमात्र विशेषता उसके सुंदर होने में ही तलाशी जाती थी? यह भी देखा जा रहा है कि किसी पुरुष से बदला लेने के लिए स्त्रियों को ही हथियार बनाकर स्त्री कानूनों का दुरुपयोग किया जा रहा है.
कानूनों को ढाल बनाकर ब्लैकमेलिंग की खबरें आ रही हैं. स्त्रियों को इनसे सावधान रहने की जरूरत है. यदि कानूनों का दुरुपयोग होगा, तो उनकी धार तो कम होगी ही, समाज में विश्वसनीयता भी घटेगी. हमें ऐसा जीवन चाहिए, जहां हमें जीने का पूरा अधिकार मिले, लेकिन हमें ऐसा भी जीवन चाहिए, जहां हम दूसरों को भी जीने के अधिकार का सम्मान कर सकें. असली सशक्तीकरण इसी विचार से शुरू हो सकता है.
सोर्स: prabhatkhabar