By: divyahimachal
हिमाचल में लोकसभा चुनाव से कहीं अधिक चिराग उपचुनावों में जल रहे हैं। नई रोशनी के समाधान में कांग्रेस की रणनीति सिद्धहस्त होने का जरिया खोजती-खोजती जहां पहुंच रही है, वहां भाजपा भी शह और मात के खेल में कई रहस्यों के साथ खड़ी है। जाहिर तौर पर लोकसभा चुनावों में विधायकों की भूमिका में चुनाव की उम्मीदवारी मंडी से शिमला तक कांग्रेस के पैमानों में ताजगी भर चुकी है और अगर यही आजमाइश कांगड़ा में भी विधायक को उतार दे, तो भाजपा के सामने अगली पारी की बारी मुश्किल परीक्षा पैदा कर सकती है। हिमाचल में राज्यसभा सांसद के चुनाव ने राजनीति का डीएनए बदला है। जो पहाड़ में पहले असंभव था, अब होने लगा है, यानी कांग्रेस की अवतार रही पिछली जीत अगर छिटक कर विरोधी पक्ष के घोंसले में फिर से सपने बुन रही है, तो यह हर हालत में नई आजमाइश है। जाहिर है बागी विधायकों ने खुद की स्वीकार्यता में संपूर्ण राजनीति का रक्त बदला है। भाजपा की नसों में पूर्व में रहे कांग्रेस के छह विधायकों के रक्त का मिलन जौहर दिखाता है या समाज का असमंजस बढ़ाता है, लेकिन जिस तरह का घटनाक्रम हिमाचल में घटित हुआ है, उससे भाजपा ने नित नया डीएनए खुद पर सवार कर लिया है। इसके परिणाम कितने सुखद और कितने आश्चर्यजनक होते हैं, इसका अंदाजा लगाना किसी भी पार्टी के लिए फिलहाल मुश्किल है।
यह ऐसा प्रयोग है जहां पृष्ठभूमि के अंगार अग्रिम भूमिका में हैं। कांग्रेस का विरोध कर कांग्रेस से दरकिनार हुए छह पूर्व विधायकों को अब अपनी पगड़ी पर चढ़ा भगवा रंग बचाना है, तो पृष्ठभूमि से खींचकर किरदार बचाना है। अचानक दो परिदृश्य भाजपा के परिप्रेक्ष्य में जिलों के कद्दावर नेताओं की बेचैनी बढ़ाते हैं। मसलन हमीरपुर में भाजपा के बड़े नेता का कद देखते हुए सियासत अपना डीएनए जांच रही है। इस लोकसभा क्षेत्र में सबसे अधिक विध्वंस हुए हैं, इसलिए चरित्र बनाम चरित्र का अधिकतम प्रयोग यहीं हुआ है। कल इबारतें अगर बदलती हैं, तो भाजपा का पदानुक्रम यानी हाइअराकि भी नए सिरे से लिखी जाएगी। कांगड़ा में भी सुधीर शर्मा की पेशकश में महज एक उपचुनाव की समीक्षा नहीं होगी, बल्कि भाजपा की अनुशंसा में कई नकाब भी बदलेंगे। जो चरित्र कांग्रेस से निकलकर भाजपा में घर कर रहा है, उससे पारंपरिक पार्टी कितने प्रतिशत रहेगी, यह साबित करने की चुनौती है। जो भी हो, कांग्रेस से भाजपा में आकर बने प्रत्याशियों ने मूल पार्टी के ढांचे में कुछ रिक्तता अवश्य पैदा की, लेकिन हिमाचल के समाज के सामने वे भी निरपराध नहीं हैं। क्या पार्टियों के पीछे भागती जनता ही नेताओं के पीछे भाग रही है या नेताओं के कारण नागरिक समाज पार्टियों को अहमियत दे रहा है।
पिछले कुछ समय से नेताओं ने अपने वजूद की खातिर अलग से दरबार सजाकर नित नए प्रयोग किए हैं। प्रदेश में राजेंद्र राणा, होशियार सिंह व प्रकाश राणा का उदय उनकी अपनी हस्ती से तराशा हुआ प्रतिफल था। ये पहले नेता बने, फिर पार्टियों ने आजमाया। इन्हीं उदाहरणों से कई नेताओं ने एनजीओ की तरह अपनी राजनीतिक दुकानदारी शुरू की है और ये सफल भी हो रहे हैं। भाजपा ने गैर परंपरागत परिपाटी शुरू करते हुए हिमाचल के नक्शे पर उपचुनावों की परिस्थिति में जो अपनाया वह असाधारण है, लेकिन जो गंवाया वह भी साधारण नहीं है। कहीं तो विचारधारा के मंच पर आगंतुकों के कारण पार्टी के डीएनए पर असर हो रहा है। राजनीति की वकालत में सत्ता की खोज का यह तरीका पल भर के लिए आसान लगता है, लेकिन एक बार अगर प्रयोगशाला में ही इस तरह नेता अपनाए जाने लगे, तो पृष्ठभूमि तथा आंतरिक शक्ति का ह्रास नहीं होगा, यह सोचना बेमानी लगता है।