दुुश्मन को घर में घुसकर मारने का माद्दा रखते थे सीडीएस जनरल बिपिन रावत, उनसे मुलाकात भुलाए नहीं भूलती
सीडीएस जनरल बिपिन रावत का निधन
तरुण विजय। जीवन में कभी इतने भारी कदमों से किसी के घर जाना नहीं हुआ, जितना जनरल बिपिन रावत के घर जाते हुए महसूस हुआ। जिन दो बेटियों ने अचानक अपने माता-पिता को खो दिया हो, उनसे हम क्या बात करें और कैसे सांत्वना दें, कुछ सूझ ही नहीं रहा था? जब हम जनरल साहब की छोटी बेटी से मिले तो वह अपने पिता और मां की भांति बहादुर और दृढ दिखीं। इतना बड़ा दुख का पहाड़ बड़ी गरिमा और शालीनता से झेलते हुए उन्होंने पापा के बारे में कुछ कहा और फिर हम सब सन्नाटे में खो गए।
बहादुरी ओढ़ी नहीं जाती। यह वह क्षात्र गुण है, जो रक्त में मिलता है। सदियां बीत जाएंगी अपनों से अपनेपन की हदें पार करने और दुश्मन को उसके घर में घुसकर मारने वाले जनरल बिपिन रावत की चर्चा करते हुए। जनरल साहब हमेशा मुस्कुराते हुए मिलते थे और बहुधा मजेदार कहानियां सुनाते थे। हम हर साल सेना के लिए एक लाख राखियां देश भर के स्कूलों से बनवाकर उन्हें सीमावर्ती क्षेत्रों में तैनात जवानों के लिए देते थे। इस साल हम राखियां लेकर साउथ ब्लाक स्थित उनके कार्यालय पहुंचे। उनके मिलिट्री सहायक ब्रिगेडियर लिद्दर ने स्वागत किया।
कुछ देर बाद हमें जनरल बिपिन रावत के भव्य कक्ष में आमंत्रित किया गया। वह स्वयं हमारी राखियां स्वीकार करने आए और मेरी बेटी से राखी बंधवाई, फिर मेरी पत्नी से बोले-भुली चाय पियोगी? भुली पहाड़ी में बहन को कहते हैं। फिर वह काफी देर बातें करते रहे। लगा ही नहीं कि राष्ट्र के इतने महत्वपूर्ण सेनाधिपति से हम रूबरू हो रहे हैं। जनरल रावत इतने मिलनसार और हंसमुख थे कि विश्वास नहीं होता था कि वह इतने बड़े सैन्य अधिकारी हैं।
एक बार तमिलनाडु से प्रधानाचार्य राम सुब्रमण्यम बच्चों के साथ देहरादून, आर्यन स्कूल और सेवा भारती और शिशु मंदिर से छात्रएं राखियां लेकर गईं तो हरेक ने उनके साथ फोटो खिंचवाई। तमाम व्यस्तता के बाद भी उन्होंने सबको मौका दिया। उनकी मुस्कान मंत्रमुग्ध करती थी तो उनके प्रहार शत्रु को मटियामेट कर देते थे। ऐसे थे हिमालय के गांव से आए बहादुर वीर बिपिन रावत। उन्हें चीन के षड्यंत्रों और विश्वासघाती चालों की गहरी पहचान थी। गलवन का जो बदला उन्होंने लिया, उसकी काफी कुछ जानकारी बाहर कभी नहीं आई, लेकिन उसके कारण चीन दहल गया। चीन को कैसे भविष्य में दबाकर रखा जाए, इसकी उन्हें असीम जानकारी थी और इसके लिए वह सेना के तीनों अंगों को तैयार कर रहे थे। पाकिस्तान को वह चिंता का कारण नहीं मानते थे। 'जब तय कर लेंगे निपटा देंगे' ऐसा वह हंसकर कहते थे।
उत्तराखंड में बाड़ाहोती सीमा तक सड़क नहीं थी। जनरल रावत ने स्वयं पहल कर तमाम बाबूशाही और पर्यावरण के शूल झेलकर सीमा तक बढ़िया सड़क बनवाई। मुनस्यारी से मिलम ग्लेशियर तक की पक्की मजबूत सड़क समय पर नहीं बनने से वह बहुत नाराज थे। देहरादून में 35 वषों से युद्ध स्मारक की मांग हो रही थी, लेकिन जमीन नहीं मिल रही थी। रक्षा मंत्री मनोहर र्पीकर जी के समय मैंने अपनी सांसद निधि से ढाई करोड़ रुपये युद्ध स्मारक हेतु दिए तो जनरल बिपिन रावत ने थल सेनाध्यक्ष के नाते उसके लिए राजभवन के सामने चीड़ बाग में जमीन दी।
मनोहर र्पीकर जी ने भूमि पूजन किया। आज वह बनकर तैयार है, लेकिन इसका दुख है कि जनरल रावत इसे नहीं देख पाएंगे। इस युद्ध स्मारक निर्माण में हर बाधा को जनरल रावत ने दूर किया। उन्होंने मिग 21 का फ्रेम दिलवाया, स्वयं कारगिल विजय के ताम्र चित्र दिलवाए, नौसेना का माडल दिया और कहा मैं 16 दिसंबर को देहरादून आ रहा हूं। शौर्य स्थल देखने जरूर आऊंगा। हम सब उनके आगमन की तैयारियों में थे, लेकिन विधि का विधान कुछ और ही था। युद्ध स्मारक का एक जीवंत तैल चित्र देहरादून के चित्रकार मनु दत्ता ने बनाया तो उसके साथ बहुत प्रसन्न होकर उन्होंने फोटो खिंचवाई और उसे अपने कार्यालय में लगाया। यह युद्ध स्मारक अनेक बाधाओं को पार कर तैयार हुआ तो उसका बड़ा कारण जनरल बिपिन रावत द्वारा इसे संपूर्ण समर्थन देना था। वह इस युद्ध स्मारक के पिता कहे जा सकते हैं।
इजरायल, अमेरिका और रूस के साथ उच्च सैन्य संबंध बनाने, उनसे अत्याधुनिक हथियार लेने तथा उस तकनीक के भारत की आयुध निर्माणियों को स्थानांतरित करवाने में भी जनरल रावत का बहुत बड़ा योगदान था। अवकाश ग्रहण करने के बाद वह उत्तराखंड के विकास हेतु अपना समय देने का मन बना रहे थे। उनका असमय जाना देश के लिए तो अपूरणीय क्षति है ही, लेकिन उत्तराखंड के लिए तो अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।
जनरल रावत ने कभी किसी के आगे झुकना नहीं सीखा। वह निडरता की मिसाल थे। अपनी गोरखा पलटन के तो वह देवता सरीखे थे। फेरी भेटुला यानी फिर मिलेंगे (गोरखाली में) उनके अधरों पर रहता था। उनके सभी सहायक और सहयोगी गोरखा पलटन से थे और वह उनके साथ सदा गोरखाली में बात करते थे। इसी पलटन को उनके पिता लेफ्टिनेंट जनरल लक्ष्मण सिंह रावत ने कमांड किया था। अपनी खानदानी विजयी परंपरा को उन्होंने बखूबी निभाया। उनकी धर्मपत्नी मधुलिका रावत सैनिक परिवारों के साथ सुख-दुख का संबंध रखती थीं। दोनों मानों एक-दूसरे के लिए बने थे। एक साथ जिए, एक साथ विदा हो गए। जनरल बिपिन रावत अपने अप्रतिम साहस और सैन्य तंत्र को दिए गए अतुलनीय योगदान के कारण गगन में अमर नक्षत्र की भांति सदैव भारतीय युवाओं को सैन्य धर्म पालन की प्रेरणा देते रहेंगे।
(लेखक पूर्व सांसद एवं उत्तराखंड युद्ध स्मारक के अध्यक्ष हैं)