जातिगत जनगणना की कवायद आसान नहीं। उसके आंकड़ों को एकत्र कर विश्लेषित करना भी एक चुनौती है। मनमोहन सरकार द्वारा 2011 में जो सामाजिक-आर्थिक-पारिवारिक जनगणना हुई, उसके आंकड़े प्रकाशित नहीं हो सके। अंतिम जातिगत जनगणना 1931 में हुई, जिसमें 4,147 जातियां चिह्नित की गई थीं, किंतु 2011 की जनगणना में 46 लाख से अधिक जातियों/उपजातियों को दर्ज किया गया। आखिर इतनी बढ़ोतरी कैसे संभव हुई?
देश में राष्ट्रीय स्तर पर जातियों का समरूप वर्गीकरण संभव नहीं है, क्योंकि कोई जाति एक राज्य में ओबीसी है, तो दूसरे राज्यों में सामान्य वर्ग में है। बिहार में बनिया/वैश्य ओबीसी, तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली में सामान्य वर्ग में हैं। रेड्डी कर्नाटक में ओबीसी तो आंध्र में सामान्य वर्ग में हैं। केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय में जनगणना 2011 के जातिवार आंकड़े सार्वजनिक न करने के यही सब कारण बताए थे। जातिगत जनगणना कराना न तो व्यावहारिक है, न ही प्रशासकीय रूप से संभव है।
यदि बिहार में जाति जनगणना हो भी गई, तो क्या उसके आंकड़े प्रकाशित हो पाएंगे? क्या उससे जनता को कोई लाभ मिलेगा? कुछ दल निहित स्वार्थों के लिए ही इसका प्रयोग करेंगे। यदि 'ओबीसीÓ की जनसंख्या बढ़ गई तो राजनीतिक दल संभवत: 'कर्नाटक माडल' के आधार पर कानून बनाने और आरक्षण 69 प्रतिशत करने की मांग करें या केंद्र सरकार के विरुद्ध आंदोलन खड़ा करने की कोशिश करें, जिसका प्रभाव 2024 के लोकसभा चुनाव और 2025 के बिहार विधानसभा चुनावों में पड़े।
जातिगत जनगणना में नागरिक से केवल उसकी जाति या जाति-समूह पूछा जाएगा। उसे कोई दस्तावेज नहीं दिखाना पड़ेगा। बिहार में बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुस्लिमों का जमावड़ा है। संभव है वे स्वयं को न केवल जातिगत जनगणना में शामिल करा लें, बल्कि कटिहार, किशनगंज, अररिया और पूर्णिया अदि जिलों में आरक्षण का लाभ लेने के लिए स्वयं को ओबीसी में शामिल कराएं। अनेक मुस्लिम जातियां जैसे कसब, चिक, डफली, धोबी, धुनियां, नट, नालबंद, पमारिया, भतिआर, मेहतर, लालबेगी, अंसारी, जुलाहा, रंगरेज, कुंजरा, दर्जी आदि पहले से बिहार में 'ओबीसी' शामिल हैं और आरक्षण का लाभ ले रही हैं।
चूंकि जातिगत जनगणना के आंकड़े विधिक दस्तावेज नहीं, इसलिए उसके द्वारा किसी को अपनी जाति या जाति-समूह प्रमाणित करने का कानूनी आधार नहीं मिलेगा। प्रख्यात समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास के 'संस्कृतिकरण' सिद्धांत के अनुसार सामाजिक संरचना में नीचे के सोपान पर स्थित व्यक्ति ऊपर बढऩे की अभिलाषा रखता है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय है कि नागरिक अपना पंथ बदल सकता है, मगर जाति नहीं। स्पष्ट है कि जातिगत जनगणना से नागरिकों को कोई लाभ नहीं मिलेगा, केवल 'ओबीसी' पर जातिगत राजनीति करने वाले दलों को चुनावी लाभ मिल सकता है।
ओबीसी कोई समरूप सामाजिक वर्ग नहीं है। उसमें तीन उपवर्ग हैं, जिनमें पिछड़े (यादव/अहीर), मध्यम-पिछड़े (कुर्मी, लोध) और सर्वाधिक पिछड़े (कुशवाहा, कहार, शाक्य, निषाद, पाल, गड़रिया आदि) हैं। क्या कभी जातिगत जनगणना की मांग कर रहे दलों ने इन सभी के लिए सामाजिक न्याय की बात की है? महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु आदि ने तो उनके लिए अलग-अलग कोटा बनाया है, लेकिन जब उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार ने हुकुम सिंह समिति की 2001 में आई रिपोर्ट के आधार पर 27 प्रतिशत आरक्षण इन उपवर्गों में जनसंख्या के आधार पर विभाजित किया तो इन्हीं दलों ने विरोध किया और उसे लागू नहीं होने दिया। उस समय वे सामाजिक न्याय भूल गए। काका कालेलकर और मंडल आयोग, दोनों में उप-वर्गीकरण की बात उठी थी। वर्तमान में रोहिणी आयोग द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर 'ओबीसी' का उप-वर्गीकरण और आरक्षण का समानुपातिक विभाजन विचाराधीन है। देखना है कि सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले दल इसे स्वीकार करते हैं या नहीं?
पिछड़ों की राजनीति करने वाले दलों को अब भाजपा से कड़ी चुनौती मिल रही है। भाजपा ने न केवल जुलाई 2015 में 'ओबीसी-मोर्चा' गठित किया, वरन पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर नीट परीक्षा में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रविधान किया। इसके साथ ही केंद्रीय मंत्रिमंडल में ओबीसी को 40 प्रतिशत स्थान देकर और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में ओबीसी को 40 प्रतिशत टिकट देकर सामाजिक न्याय की अवधारणा को एक नया आयाम दिया। यही कारण है कि विपक्षी दलों के संयुक्त प्रयास के बावजूद भाजपा का जनाधार बढ़ता जा रहा है।
जनता अब समझ रही है कि सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण ही एकमात्र मार्ग नहीं है। आरक्षण एक जाति समूह को लाभ दे रहा है, पर उसी जाति समूह के अनेक सीमांत उपवर्ग उससे वंचित हैं। आरक्षण इतने विशाल समाज को लाभ नहीं दे सकता, क्योंकि आज के तकनीकी युग में नौकरियों की संख्या में कमी हो रही है। जातिगत जनगणना पिछड़े, दलित, सीमांत वर्ग को चिह्नित अवश्य करेगी, पर यह कहना कठिन है कि इससे इनमें से कितनों को सामाजिक न्याय या आरक्षण मिल पाएगा? सामाजिक न्याय के लिए हमें आरक्षण से आगे सोचना होगा। समावेशी राजनीति से ही हम एक समावेशी अर्थव्यवस्था और समावेशी समाज की ओर बढ़ सकेंगे, जो इस वृहद समाज में संविधान के सामाजिक न्याय के संकल्प को चरितार्थ कर सकेगा।