विकास के पांव जहां तक चिन्हित होते हैं, वहां सियासी और सामाजिक संतुलन की अति आवश्यकता है। नेरचौक-मनाली फोरलेन की बिसात पर खड़े आंदोलन ने अब पठानकोट-मंडी फोरलेन की राह पकड़ी है, तो आंदोलनरत जनता के सवालों से रू-ब-रू तलखियों का समाधान चाहिए। आरंभिक विकास की महबूबा की तरह गांव, देहात और शहर के लिए यह इश्क की तरह था, लेकिन अब बड़े दायरे में जब मंजिलें मीलों माप रही हैं, तो सामाजिक योगदान के इम्तिहान में तख्तियां बदल रही हैं। ऐसे में विकास की बड़ी परिकल्पना को या तो रद्द कर दिया जाए या वन संरक्षण अधिनियम के कुछ ताले टूटने चाहिएं। खास तौर पर ऊना, बिलासपुर, सिरमौर, कांगड़ा, हमीरपुर, चंबा, मंडी जैसे जिलों के कम ऊंचाई के वन क्षेत्रों से विकास के सार्वजनिक समाधान आवश्यक हो जाते हैं। विकास कोई ऐसी अवधारणा नहीं कि आंखों पर पट्टी बांध कर पूरा कर लिया जाए या सामाजिक आवरण से दूरी बना कर इसे मुकम्मल किया जा सकता है।
विकास अपने मानदंडों की आड़ी-तिरछी रेखाएं नहीं कि सिर्फ यही आधार बना लिया जाए कि जहां जमीन उपलब्ध हो, वहीं इसका ठौर बना दिया जाए। विकास के नए नक्शे पर गांव-शहर की मजदूरी, व्यापार या आर्थिक गतिविधियां बदलेंगी, तो इसी के साथ दिशाएं भी बदलेंगी यानी नेरचौक से घूमती फोरलेन ने विकास के पहलू में नए समाज का शृंगार करना भी शुरू किया है। इसी तरह पठानकोट-मंडी सड़क पर लग रही फोरलेन की बुर्जियां अगर आज समाज के प्रभावित पक्ष को आंदोलित कर रही हैं, तो कल आर्थिकी का नया कारवां भी इसी के ऊपर से गुजरेगा। बहरहाल कल तक जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र की रचना में स्कूल, कालेज, अस्पताल या कार्यालय ढो रहे थे, तो अब विस्थापन के आक्रोश का सार्थकता के साथ सामना करना होगा। मंडी-पठानकोट या धर्मशाला-शिमला फोरलेन की आवश्यकता को हमारी जरूरतों ने ही अनिवार्य बनाया है, अत: इसे कबूल करने का सामथ्र्य व समाधान तैयार करना होगा। विकास के लिए विस्थापन अगर अनिवार्य होने लगा है, तो पुनर्वास का राज्य स्तरीय नक्शा और मुआवजे की भरपेट सहमति भी पैदा करनी होगी। अब हर इंच के विकास का व्यय है, तो सामाजिक पुनर्वास से भी विकास का नया ढांचा विकसित करना है। अगर फोरलेन से विस्थापन या रोजगार की अनिश्चितता पैदा हो रही है, तो इसके एवज में पुनर्वास के विकल्पों में नई आर्थिकी का संचार करना है। जाहिर तौर पर हिमाचल को अपने आर्थिक हितों की दीवार हटाने के लिए ऐसी वन भूमि को पुन: विकास भूमि के लिए हासिल करना होगा, जो सात जिलों के निचले इलाकों में कम ऊंचाई पर स्थित है। जंगल से विकास भूमि हासिल करके ही विस्थापन का पुनर्वास और पुनर्वास से नई आर्थिकी विकसित होगी।
हिमाचल में सड़क, रेल व हवाई अड्डों के विस्तार-स्थापना के लिए केवल केंद्रीय योजनाएं ही नहीं, बल्कि पुनर्वास के लिए पर्वतीय राज्य की प्राथमिकता चाहिए। मौजूदा 66 फीसदी वन भूमि के तहत आते हिमाचल की भौगोलिक जरूरतें शेष 34 प्रतिशत जमीन से कैसे पूरी होंगी। वन भूमि का सर्वेक्षण करवाएं तो मालूम होगा कि कहीं ऐसी जमीन इनके तहत आ गई है, जिसकी उपयोगिता नागरिक सुविधाओं, विकास की जरूरतों तथा प्रगति के हिसाब से कहीं अधिक उपयोगी होगी। ऐसे में वन व साधारण-सार्वजनिक भूमि का अनुपात 50:50 करना चाहिए। आश्चर्य यह भी कि कई किसानों व बागबानों की निजी जमीन भी वास्तव में ढांग या खाई जैसी ही पाई जाती है, जबकि इसके मुकाबले जंगल की संपत्तियों में हिमाचल के आगे बढ़ती उम्मीदें कैद हैं। खुशी का विषय यह कि हिमाचल सरकार ने समिति गठित करके फोरलेन मुआवजे की फाइल पुन: खोलने की इच्छा प्रकट की है। सर्किल रेट से चार गुना मुआवजे की मांग का एक पक्ष हो सकता है, लेकिन हकीकत में विस्थापन का मूल्यांकन और उसके हिसाब से पुनर्वास व नए जीवन की शुरुआत का मसला तभी हल होगा, अगर प्रदेश भर में कम से कम छह नए निवेश केंद्र तथा इतने ही सेटेलाइट टाउन बनाकर विस्थापितों को आगे बढऩे का रास्ता दिखाया जाए।
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