संतोष की नींव पर महल बनाएं; कल्पनाओं को पूरा करने के लिए परिश्रम और समर्पण जरूरी
पलकों के पर्दों में दृश्य भर लेने से दुनिया की कोई चीज हमारी नहीं हो जाती
पं. विजयशंकर मेहता का कॉलम:
पलकों के पर्दों में दृश्य भर लेने से दुनिया की कोई चीज हमारी नहीं हो जाती। इस तरीके से कल्पनाशीलता जागती है, सपने संजोए जाते हैं, लेकिन उनको पूरा करने के लिए परिश्रम, समर्पण ये सब जरूरी है। संकल्प लो, सपने देखो, उन्हें पूरा करो। ऐसी कई बातें आजकल के प्रबंधन के क्षेत्र में सिखाई जाती हैं। सुनने में ये सब बहुत अच्छा लगता है, लेकिन जो इस यात्रा से गुजरे हैं, कभी उनसे पूछें तो पता चलेगा उन्होंने कितनी तकलीफें उठाई होंगी। जिनके सपने पूरे हो गए, वे भी अशांति के ज्वालामुखी पर बैठे हैं।
शास्त्रों में एक बात कही गई है कि महत्वाकांक्षा व संतोष एक साथ कैसे चल सकते हैं। आधुनिक प्रबंधन की दृष्टि से देखें तो यह बात ही खारिज करना पड़ेगी कि जो संतोषी हो गया, वह महत्वाकांक्षी नहीं हो सकता और जिसकी महत्वाकांक्षा जागी, उसे संतोष नहीं रखना चाहिए। पर हमारे कई पौराणिक पात्र ऐसे हैं जिन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा को भी जीवित रखा और संतोष भी बचाए रखा।
यदि संतोष के साथ महत्वाकांक्षा पा ली जाए, पूरी की जाए तो परिणाम में सफलता के साथ शांति भी मिलेगी। संतोष हमारे परिश्रम, सफलता की यात्रा में बाधा नहीं है। लोग संतोष को बाधा मान लेते हैं, पर शांति के लिए यह खाद का काम करता है। तो संतोष को नींव बनाइए और उस पर महत्वाकांक्षा का महल खड़ा करिए।