टूटे गतिरोध: हठधर्मिता छोड़ें सरकार और किसान

वार्ता के दरवाजे खुले हैं

Update: 2021-02-01 15:59 GMT

भले ही देर से ही सही, प्रधानमंत्री ने सकारात्मक पहल की है कि किसानों और सरकार के बीच कृषि सुधारों के मुद्दे पर एक फोन कॉल की दूरी शेष है। वार्ता के दरवाजे खुले हैं और कृषि मंत्री द्वारा किसानों को बातचीत के लिये दिया गया न्योता अब भी बरकरार है। निस्संदेह लगातार विस्तार पाता किसान आंदोलन जहां सामाजिक आक्रोश का वाहक है, वहीं कानून व्यवस्था को भी बड़ी चुनौती मिल रही है। राजधानी को जोड़ने वाले मुख्य राजमार्गों पर किसान आंदोलन के चलते जहां नागरिक परेशान हैं, वहीं सरकार को भी रोज करोड़ों रुपये का नुकसान टोल टैक्स व अन्य कारोबार ठप होने से हो रहा है। सरकार को इस मुद्दे पर संवेदनशील पहल करने की जरूरत है। किसानों की भी जिम्मेदारी है कि वे समस्या का समाधान निकालने का प्रयास करें, लेकिन सरकार की जिम्मेदारी उससे अधिक है। राष्ट्रीय राजमार्गों पर दो माह से अधिक समय से जारी धरने का समाधान न निकल पाने से किसानों में आक्रोश है। वहीं यही आक्रोश धरना स्थल के आसपास के गांवों में दिखायी दे रहा है, जिनकी सामान्य गतिविधियां इस आंदोलन से बाधित हैं। निस्संदेह यह गतिरोध और टकराव देश के हित में कदापि नहीं कहा जा सकता। हम यह नहीं भूले कि अभी कोरोना संकट पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। इससे जुड़ी तमाम सावधानियां-सतर्कता आंदोलन के दौरान ध्वस्त हुई हैं। आशंका है कि जब किसान गांव लौटें तो संक्रमण का विस्तार दिखे।


दरअसल, सरकार और किसानों को बीच का रास्ता निकालने की जरूरत है। जिद न सरकार की तरफ से उचित है न ही किसानों की तरफ से। किसान नेता राकेश टिकैत का वह बयान स्वागतयोग्य है कि न सरकार को झुकना पड़े और न ही किसान की पगड़ी उछले। सरकार की मंशा कृषि सुधार के जरिये किसानों को लाभ पहुंचाने की हो सकती है, लेकिन सरकार ने जैसी जल्दबाजी इन कानूनों को बनाने और पारित करने में दिखायी, उसने किसान बिरादरी में संदेह के बीज बोये। निस्संदेह, इस मुद्दे के राजनीतिक निहितार्थ हैं। हारे-हताश राजनीतिक दलों ने इस विवाद को जनाधार जुटाने के मौके के रूप में लिया। शुरुआती दौर में राजनीतिक दलों से परहेज की बात किसान करते रहे हैं, लेकिन राकेश टिकैत के द्रवित होने के बाद राजनीतिक दल जिस तेजी से गाजीपुर आंदोलन स्थल पर जुटे और राहुल गांधी के एक इंच पीछे न हटने के बयान आये उसने राजनीतिक दलों की मंशा को उजागर किया। निस्संदेह 21वीं सदी की खेती पुराने ढर्रे पर नहीं चल सकती। भूमि के संकुचन, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, खाद्यान्न के विश्व बाजार के ट्रेंड, घटते जल स्रोत तथा ढर्रे की खेती के नुकसानों के मद्देनजर कृषि क्षेत्र में सुधारों की जरूरत है। बहुत संभव है इन बदलावों में कुछ असुविधा हो,लेकिन किसान का विश्वास हासिल करना भी जरूरी है। लोकतंत्र में उस बिरादरी पर कानून नहीं थोपे जा सकते, जो उनसे सहमत ही न हो। ऐसे में सरकार और आंदोलनकारियों को मिल-बैठकर बीच का रास्ता निकालना चाहिए।


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