आतंक के खिलाफ ब्रिक्स
अमरीका के न्यूयॉर्क में 9/11 आतंकी हमले की आज बरसी है। उससे ज्यादा विध्वंसक हमला कोई नहीं हुआ
दिव्याहिमाचल.
अमरीका के न्यूयॉर्क में 9/11 आतंकी हमले की आज बरसी है। उससे ज्यादा विध्वंसक हमला कोई नहीं हुआ, जिसमें करीब 3000 लोगों की मौत हो गई थी। आतंकवाद अमरीका और उसके साझेदार देशों का सबसे महत्त्वपूर्ण सरोकार है। आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई के बावजूद आतंकवाद 20 लंबे सालों के बाद भी जि़ंदा है। तालिबान का अफगानिस्तान नया अवतरण है। अमरीका के अलावा, भारत की अपनी चिंताएं रही हैं, जिनकी अभिव्यक्ति ब्रिक्स सम्मेलन के मंच पर भी की गई है। ब्रिक्स दुनिया के पांच सबसे बड़े विकासशील देशों-भारत, रूस, चीन, ब्राजील और साउथ अफ्रीका-का साझा मंच है। विश्व की करीब 41 फीसदी आबादी इन देशों में बसी है। करीब 24 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) इन देशों का है और दुनिया का 16 फीसदी से ज्यादा कारोबार ये देश करते हैं। ऐसे संगठन की चिंताओं की अनदेखी विश्व नहीं कर सकता। संदर्भ तालिबानी अफगान का है, जिसकी सरज़मीं पर अब अलकायदा, आईएसआईएस, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मुहम्मद, हक्कानी नेटवर्क और दूसरे देशों से आ रहे आतंकी समूह अपने अड्डे बना रहे हैं। आतंकी नए सिरे से गोलबंद हो रहे हैं। कैबिनेट में ही आतंकी मौजूद हैं, जो संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंधित सूची में हैं। उन पर करोड़ों डॉलर के इनाम भी घोषित हैं। ब्रिक्स के मंच से रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर चिंता जताई है। उन्होंने आतंकवाद और नशे के कारोबार पर चिंता जताई है। ऐसे कारोबार पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। पुतिन की आशंका है कि अफगानिस्तान पड़ोसी देशों के लिए खतरा बन सकता है, लिहाजा आतंकवाद पर लगाम जरूरी है। पुतिन ने अफगानिस्तान में बाहरी दखल और पंजशीर में हवाई हमलों पर भी चिंता जताई और बिना नाम लिए पाकिस्तान की भत्र्सना भी की।
अफगान में तालिबान का कब्जा, अमरीका का अफगानिस्तान से चले जाना और आज भी 9/11 जैसे आतंकी हमलों की धमकियों के मद्देनजर ब्रिक्स सम्मेलन बेहद प्रासंगिक है। इसके तीन बड़े सदस्य-भारत, रूस, चीन-अफगानिस्तान के पड़ोसी देश हैं। यदि आतंकवाद की नई लपटें उभरती हैं, तो इन देशों की शांति और स्थिरता भंग होना तय है। पुतिन तालिबानी अफगान को विश्व-सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती भी मान रहे हैं। भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने 13वें ब्रिक्स सम्मेलन की अध्यक्षता की और आतंकवाद को एजेंडे का प्रमुख मुद्दा बनाया। अभी तक अफगानिस्तान पर रूस के रुख और समर्थन की अलग व्याख्याएं की जा रही थीं, लेकिन रूसी राष्ट्रपति के कथन ने हवा का रुख ही बदल दिया। रूस आंख मींच कर तालिबानी अफगान को समर्थन नहीं देगा, अब यह स्पष्ट हो गया है। हालांकि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने आतंकवाद और अफगानिस्तान पर कुछ भी खुलकर नहीं कहा, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ साझा प्रयास और लड़ाई पर साझा घोषणा-पत्र जारी कर चीन को भी मजबूर होना पड़ा है। घोषणा-पत्र में भारत ने सीमापार आतंकवाद, उसकी पनाहगाह और फंडिंग को भी शामिल करा परोक्ष रूप से पाकिस्तान को दबोचने की कोशिश की है। ऐसे आतंकी हमलों का ब्रिक्स देश मिलकर मुकाबला करेंगे, यह भी साझा घोषणा-पत्र में है।
लेकिन एक प्रावधान सवालिया है कि तालिबानी अफगानिस्तान के साथ समावेशी संवाद किया जाएगा। क्या बर्बर,जल्लाद, दरिंदे तालिबान समावेशी संवाद की भाषा और उसकी नैतिकता को समझेंगे? वे आत्मा और व्यवहार से आज भी आतंकी हैं। यह उनके ऐलानों और जनता पर कोड़ों की मार, पाबंदियों और दफ्तर की मेज पर बंदूक रखने से साफ है कि उनके संस्कार कैसे हैं और बिल्कुल भी नहीं बदले हैं। आखिर वे क्यों बदलेंगे? वे लोकतांत्रिक नहीं हैं। उनकी जवाबदेही और जन-कल्याण की योजनाएं 'शून्यÓ हैं। उन्हें हुकूमत करनी है, जब तक संभव होगा। लिहाजा यह भी सवालिया है कि क्या वे ब्रिक्स की घोषणाओं को गंभीरता से ग्रहण करेंगे? साझा घोषणा-पत्र में उल्लेख किया गया है कि अफगान धरती का इस्तेमाल, अन्य देशों के खिलाफ, आतंकी हमलों को अंजाम देने के लिए नहीं करने देना चाहिए। क्या तालिबान के नियंत्रण में ऐसा संभव है, क्योंकि गुटों में बंटा तालिबान किसी एक निश्चित शर्त को मानने वाला नहीं है। ब्रिक्स ने स्पष्ट कर दिया है कि तालिबानी अफगानिस्तान को मान्यता देना आसान नहीं होगा। शेष, तालिबान का व्यवहार देखना होगा।