ब्लॉग: राज्यों के लिए 'कर्ज लेकर घी पीने' की आदत ठीक नहीं, ये मुफ्त उपहारों से तौबा करने का समय

सियासत की ओर से अवाम को तोहफे और नगद बांटने का मुद्दा एक बार फिर बहस का मुद्दा बन गया है

Update: 2022-07-26 17:52 GMT

By लोकमत समाचार सम्पादकीय

सियासत की ओर से अवाम को तोहफे और नगद बांटने का मुद्दा एक बार फिर बहस का मुद्दा बन गया है. संसद के मौजूदा सत्र में इस बारे में कहा गया कि लोगों को घर बैठे नि:शुल्क सुविधाएं देना उचित नहीं है. यह मतदाता का अपमान है और उन्हें आलसी बनाता है. देश के आखिरी छोर पर खड़े भारतीयों को खैरात नहीं चाहिए. यह किसी भी निर्वाचित सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वह अपने देशवासियों को काम देने के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण करे.
संभवतया इसी दबाव के कारण सत्तारूढ़ पार्टी ने भी विचार करने का मन बनाया है कि वह लोकसभा और विधानसभा चुनावों से पहले जारी किए जाने वाले वचनपत्र में अपने वोटरों को किसी किस्म की मुफ्त सुविधा देने का वादा नहीं करेगी. पार्टी अब इस मसले पर संगठन में मंथन करने पर विचार कर रही है. आशा करनी चाहिए कि अन्य राजनीतिक दल भी इस सिलसिले में संविधान की भावना का आदर करेंगे और मतदाताओं को लुभाने के मकसद से चुनाव पूर्व ऐसे ऐलान नहीं करेंगे, जो सत्ता में आने के बाद गले की हड्डी बन जाएं. बताने की आवश्यकता नहीं कि इस बुराई पर काबू पाने के लिए सभी पार्टियों को एकजुट होना पड़ेगा.
वैसे कुछ साल से यह मसला लगातार चर्चाओं में रहा है. एक तरफ तो प्रदेशों की अपनी वित्तीय हालत जर्जर है. उन्हें अपने कर्मचारियों को वेतन बांटने तक के लाले पड़ रहे हैं. अनेक राज्यों ने तो साल में दो-तीन बार ऋण लेने की आदत बना ली है. कर्ज लेकर घी पीने की आदत के चलते इन राज्यों के बुनियादी विकास कार्यों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है. अलबत्ता विधायकों और मंत्रियों के वेतन, भत्ते और उनकी अपनी शान में कहीं कोई कटौती नहीं हो रही है. नैतिक रूप से यह अपराध है.
संविधान का अनुच्छेद 21 स्पष्ट कहता है कि नागरिकों को जिंदा रहने के लिए सम्मानजनक पर्यावरण देना निर्वाचित सरकार का फर्ज है. शिक्षा, स्वास्थ्य और साफ पानी उपलब्ध कराना उनका संवैधानिक दायित्व है. स्वतंत्रता के बाद कई दशकों तक सरकारें ऐसा करती रही हैं. लेकिन अब वे अपने रास्ते से भटकी हुई नजर आती हैं. इन तीनों सुविधाओं को बाजार के हाथों सौंप दिया गया है क्योंकि हुकूमतों की हालत खस्ता है.
विडंबना है कि बुजुर्गों को मुफ्त तीर्थ यात्रा कराने और लड़कियों की शादी में दहेज का सामान भेंट करने का काम वे बड़ी ईमानदारी से कर रही हैं. उनमें पैसे का कोई रोना वे नहीं रोतीं. लड़कियों की शादी में दहेज देना तो वैसे कानूनी अपराध है, मगर उसे उपहार मानकर वे करोड़ों रुपए लुटा देती हैं. लेकिन अस्पतालों में चिकित्सकों और शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के पद भरने के लिए उनके पास पैसा नहीं होता.
एक राज्य में तो हजारों महाविद्यालयीन शिक्षकों ने समय पूर्व सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन दिए हैं. उन पर कोई विचार नहीं हो रहा है क्योंकि सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि सेवानिवृत्ति के समय करने वाला भुगतान हो सके. इसके उलट वह रिटायर होने की आयु बढ़ाती जा रही है. अब उस राज्य में यह सीमा पैंसठ साल कर दी गई है. ऐसे में सवाल उठता है कि चुनाव की घोषणा होते ही मुफ्त उपहार बांटने के लिए कहां से सरकारें पैसा जुटाती हैं.
दरअसल दक्षिण भारत में तो दशकों से उपहार बांटने की परंपरा रही है. चुनाव से पहले बांटी जाने वाली नगद राशि कालाधन होती है और भ्रष्टाचार के जरिए कमाई गई होती है लेकिन तोहफों के बारे में तो सियासी पार्टियां अपने घोषणापत्र या वचनपत्र में वादा करती हैं. जाहिर है कि जीतने के बाद घोषणापत्र के ये वादे जी का जंजाल बन जाते हैं. उन्हें इन वादों को अपने बजट प्रावधानों में शामिल करना पड़ता है,जो कि बेहद कठिन काम है. इसकी वजह यह है कि पिछली सरकार पहले ही खजाने को खाली कर चुकी होती है.
दिल्ली विधानसभा के लिए बीते चुनाव में आम आदमी पार्टी ने संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक ही मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और बिजली मुहैया करने के वादे किए थे. उनमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं था. मगर उसकी इस चुनावी घोषणा पर अन्य राष्ट्रीय दलों को भी इसी तरह की घोषणाएं करनी पड़ीं. उनमें साफ-साफ मतदाताओं को रिझाने और ललचाने की मंशा दिखाई देती है, जो खुल्लमखुल्ला भारतीय निर्वाचन अधिनियम की धारा 123 के तहत भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है.
इसी को आधार मानकर अनेक न्यायालयों ने सरकारों से जवाब तलब किया है. दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी बीते दिनों ऐसे ही एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि भारतीय संविधान में प्राप्त हर नागरिक के मौलिक अधिकार शोभा के आभूषण नहीं हैं. मतदाताओं को इनका उपयोग करना चाहिए. अदालत ने नगद राशि मतदाताओं के खातों में डालने की घोषणाओं पर चुनाव आयोग और केंद्र सरकार से कैफियत मांगी.
उच्च न्यायालय ने इस संबंध में निर्वाचन आयोग को भी आड़े हाथों लिया था. उसने कहा था कि आयोग केवल नोटिस और आदेश जारी न करे. उसे कार्रवाई करने का पूरा अधिकार है और उसे यही करना भी चाहिए. लेकिन क्या सिर्फ न्यायालय अथवा चुनाव आयोग इस आचरण पर लगाम लगा सकता है? उनके पास इसे रोकने या काबू पाने का कोई उपकरण नहीं है. पर यह भी सच है कि सख्त रवैये की बदौलत ही निर्वाचन प्रक्रिया की गाड़ी पटरी पर लौटी है.
टीएन शेषन का कार्यकल इसका प्रमाण है. उनके बाद मतदाताओं ने जीवीजी कृष्णमूर्ति को भी आयोग की अगुवाई करते देखा है. यदि एक बार आयोग ठान ले तो कोई राजनीतिक दल या सरकार उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती. पर, जिस पर जिम्मेदारी हो, वही बचने लगे तो मतदाता किसके पास जाए?

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