मोदी-शाह के दौर में भाजपा का खेल; 50 फीसदी हिंदू वोट जुटाओ और चुनाव जीतो, लेकिन यह फॉर्मूला सब जगह नहीं चलता!

योगी आदित्यनाथ ने इसे 80 बनाम 20 फीसदी वोटों के बीच का चुनाव कहने की गलती भले की हो

Update: 2022-03-15 08:31 GMT
शेखर गुप्ता का कॉलम: 
नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा चुनावी अश्वमेध का घोड़ा बन गई है। उत्तर प्रदेश समेत तीन राज्यों में उसकी जीत के बाद विश्लेषक बता रहे हैं कि भाजपा क्यों और कैसे चुनाव जीतती रही है। ऐसे में यह समझना जरूरी और दिलचस्प होगा कि वह कैसे और क्यों चुनाव हारती है। हां, वह हारती भी है! 2018 में वह कांग्रेस पार्टी से देश के तीन प्रमुख राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव हारी थी।
उसी साल कर्नाटक में वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, मगर स्पष्ट बहुमत नहीं हासिल कर पाई थी। हम 2017 और 2022 के पंजाब की गिनती नहीं कर रहे, क्योंकि भाजपा वहां मजबूत नहीं है। 2019 के आम चुनाव में शानदार जीत के बाद वह पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से हारी और झारखंड में कांग्रेस-झामुमो-राजद ने उससे सत्ता छीन ली।
हरियाणा की सभी लोकसभा सीटें भारी वोटों से जीतने के बाद वह वहां विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत लाने से चूक गई और महाराष्ट्र में चुनाव जीतने के बाद भी राज्य को गंवा बैठी क्योंकि उसकी बड़ी सहयोगी शिवसेना ने उसका साथ छोड़ दिया। मोदी-शाह के दौर में भाजपा का खेल सीधा-सा है। 50 फीसदी हिंदू वोट जुटा लो और चुनाव जीत लो। उदाहरण के लिए, यूपी को देख लीजिए।
योगी आदित्यनाथ ने इसे 80 बनाम 20 फीसदी वोटों के बीच का चुनाव कहने की गलती भले की हो, लेकिन वे एक सच कह गए थे। यूपी में कुल मुस्लिम वोट 19 फीसदी से ऊपर हैं। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि भाजपा अगर मुस्लिम वोट की गिनती नहीं करती तो वह 80 फीसदी हिंदू वोट को ही निशाना बनाती है।
चुनाव नतीजे के मुताबिक भाजपा ने अगर अपने सहयोगियों के साथ मिलकर कुल 44 फीसदी वोट हासिल किए तो इससे साफ है कि उसने 55 फीसदी से ज्यादा हिंदू वोट जुटाए। यह भारी बहुमत लाने के लिए काफी है। बेशक हम यह मानकर चल रहे हैं कि भाजपा को अगर मुस्लिम वोट पड़े भी हों तो वे बहुत अहमियत नहीं रखते।
80 बनाम 20 का यह फॉर्मूला अलग-अलग जगहों में अलग-अलग तरह से बदल जाता है लेकिन यह हिंदी-पट्टी और पश्चिम के तीन बड़े राज्यों महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक में ही लागू होता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा और उसके सहयोगियों ने मिलकर 52 फीसदी वोट हासिल किए थे।
यहां भी मुस्लिम वोटों की गिनती न करें तो यह कुल हिंदू वोटों के करीब 67 फीसदी के बराबर होगा यानी तीन में से दो हिंदू वोट उसकी झोली में गए। यही वजह है कि कागज पर अजेय दिख रहे सपा-बसपा गठजोड़ का उसने सफाया कर दिया था। लेकिन जहां यह समीकरण नहीं होता, वहां क्या होता है? पश्चिम बंगाल को ही ले लीजिए।
यूपी को छोड़ दें तो भाजपा ने दूसरे राज्यों के मुकाबले वहां सबसे ज्यादा समय, ताकत और संसाधन लगाए थे। नागरिकता कानून को लेकर शोर-शराबे ने जबरदस्त ध्रुवीकरण वाले चुनाव का माहौल तैयार कर दिया था। भाजपा एक और बड़े राज्य को पहली बार फतह करने की उम्मीद लगाए बैठी थी लेकिन इसका उलटा हो गया।
ममता बनर्जी की टीएमसी ने उसे शिकस्त दे दी। भाजपा वहां कैसे और क्यों हारी? उसने तो 2019 के लोकसभा चुनाव में वहां की 42 में से 18 लोकसभा सीटें जीती थी और वहां मजबूत होती जा रही थी। वोटों की ही गिनती करें तो भाजपा ने 2021 के विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी इतने ही यानी 40 फीसदी के आसपास वोट हासिल किए थे। फिर भी ये उसी अनुपात से विधानसभा सीटों में तब्दील नहीं हुए।
तो दो साल में क्या बदल गया? पहली बात तो यह हुई कि 2019 में सफाए के बाद कांग्रेस-वामदलों के गठबंधन ने अपने लगभग बाकी मतदाता गंवा दिए। लेकिन इससे ज्यादा अहम बात यह है कि यूपी के विपरीत पश्चिम बंगाल ने भाजपा को 80 बनाम 20 वाला समीकरण नहीं उपलब्ध कराया। वहां बहुत कुछ 71 बनाम 27 जैसा समीकरण था। केवल 50 फीसदी हिंदू वोट उसे बहुमत के आंकड़े से पार नहीं ले जा सकते।
कुल वोटों में से 38.13 फीसदी वोट लेकर उसने 50 फीसदी से ज्यादा, बल्कि संभवतः 53 फीसदी हिंदू वोट हासिल किए। लेकिन 71 बनाम 27 वाले समीकरण में उसे करीब 65 फीसदी हिंदू वोट की जरूरत पड़ती। यह नहीं हो पाया क्योंकि ममता बनर्जी ने महिला मतदाताओं को अपने साथ बनाए रखा। वहां महिला शक्ति ने हिंदू गोलबंदी को नाकाम कर दिया।
सो, यह पहला सबक है। अगर आप मोदी-शाह की भाजपा को शिकस्त देना चाहते हैं तो आपको इतने हिंदू वोट जीतने ही पड़ेंगे, जितने से भाजपा 50 फीसदी से ज्यादा हिंदू वोटों से वंचित हो जाए। अगर आप ऐसा नहीं कर पाते, जैसा कि यूपी-बिहार-असम में होता है, तो आपका सफाया ही होगा।
यही वजह है कि मुस्लिम-यादव समीकरण पर खड़ी अखिलेश और लालू यादव की पार्टियां अब नहीं जीत पा रही हैं। जब तक वे हिंदुओं के अंदर के किसी ताकतवर और बड़े जाति समूह को अपने पाले में नहीं लातीं, तब तक उनके लिए कोई गुंजाइश नहीं दिखती।
जब तक आप भाजपा से हिंदू वोट छीनने की लड़ाई नहीं लड़ते, तब तक आपके लिए कोई मौका नहीं है। जातीय समीकरण के बूते भी भाजपा को नहीं हराया जा सकता है। यह नाकाम कोशिश 2017 में यूपी में कांग्रेस-सपा और 2019 के आम-चुनावों में यूपी में सपा-बसपा, महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी और कर्नाटक में कांग्रेस-जेडी(एस) करके देख चुके हैं।
अगर वाकई भाजपा का मुकाबला करना है तो...
भाजपा को हराना है तो या तो उसे बड़ी संख्या में हिंदू वोटों से वंचित करें या ऐसा मजबूत क्षेत्रीय नेता या पार्टी खड़ी करें जो अपना किला बचाने की कुव्वत रखते हों। तीसरा और बेहतर उपाय यह है कि इतना मजबूत क्षेत्रीय, स्थानीय और भाषाई किला तैयार करें कि हिंदू मतदाता मुख्यतः तमिल, तेलुगु या मलयाली के तौर पर मतदान करें। यदि आप सही राजनीति करते हैं तो भाजपा अपराजेय नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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