Birthday Special: कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और…
आज 224 सालों बाद भी शायरी पसंद लोगों के दिलो दिमाग़ पर वो पूरी तरह छाए हुए हैं
ग़ालिब का हिंदी में अर्थ तलाशें तो जो शब्द सामने आते हैं वो हैं – छाया हुआ, हावी, प्रभावी, विजयी, श्रेष्ठ. 27 दिसम्बर 1796 को आगरा शहर जन्मे मिर्ज़ा असद उल्लाह बेग खान उर्फ ग़ालिब ने अपनी शायरी से उपनाम ग़ालिब को सच्चे अर्थ में सही साबित किया, ताउम्र साबित करते रहे. आज 224 सालों बाद भी शायरी पसंद लोगों के दिलो दिमाग़ पर वो पूरी तरह छाए हुए हैं.
ग़ालिब के बारे में एक लाइन में सब कुछ कहना हो तो, कह सकते है, ऐसा शायर न दुनिया में कभी हुआ है और न कभी होगा. ग़ालिब जितने ज्यादा मशहूर थे उतने ही बदनाम भी थे. बिलकुल अलग और विद्रोही तेवर वाले ग़ालिब हमेशा लीक से हटकर चले.
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने ,
शाइर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है…
अपने बारे में ऐसा कहने का साहस वो लोग ही कर पाते हैं जो अपने बारे में खुद बखूबी जानते है कि वो अलग ही मिट्टी के बने हैं, आम नहीं हैं, खास हैं, बहुत खास.
ग़ालिब उर्दू के ऐसे महान सर्वकालिक शायर थे, जिन्हें हिंदी भाषियों से भी अटूट प्यार मिला. वे बेशक उर्दू भाषा के शायर थे, लेकिन फारसी कविता के प्रवाह को भी उन्होंने हिंदुस्तानी भाषा में संप्रेषित किया. शायरी में ग़ालिब का कोई गुरू नहीं था, लेकिन फारसी भाषा उन्हें उनके गुरू विद्वान मुल्ला अब्दुल समद ईरानी ने सिखाई. अपने गुरू से उन्होंने फारसी के प्राचीन और आधुनिक साहित्य की गहन जानकारी प्राप्त की.
इस ज्ञान ने उनकी शायरी को बहुत रिच किया. शुरूआती दौर में ग़ालिब उर्दू के क्लिष्ट शब्दों का उपयोग करते थे इसलिए उनकी शायरी बड़े-बड़े लोगों के सिर से ऊपर निकल जाया करती थी. बाद में उन्होंने अपेक्षाकृत आसान अलफाज़ों का इस्तेमाल शुरू किया, लेकिन बातें उनमें भी गहरी ही थीं. इसके बाद तो हालात ये हुए कि ग़ालिब की पहचान मुशायरा लूटने वाले शायर की बन गई. दो किस्से, जो ग़ालिब की इन्हीं खासियत को सामने लाते हैं.
पहला किस्सा… ग़ालिब दिल्ली से आगरा शिफ्ट हो चुके थे. एक बार उन्हें बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में होने वाले मुशायरे में शामिल होने की दावत मिली. ग़ालिब के दोस्त और घरवाले बहुत खुश थे कि गालिब तो वहां से वाह-वाही लेकर ही लौटेंगे और बादशाह की नज़र में भी आ जाएंगे. बहादुर शाह ज़फ़र शायरी के शौकीन थे और उनके दरबार में मुशायरे होते रहते थे.
बादशाह के उस्ताद मशहूर शायर शेख इब्राहीम ज़ोक थे. शायर मोमिन भी उस दरबार की रौनक हुआ करते थे. ग़ालिब ने महफिल में जो ग़ज़ल सुनाई वो ये थी – नक्श फरियादी है किसकी शोखी-ए-तहरीर का, कागज़ी है पैराहन हर पैकर-ए-तस्वीर का, काव-काव-सख्त-जानी हाल-ए-तनहाई न पूछ….'
उनकी इस ग़ज़ल को कोई समझ नहीं पाया और भरी महफिल उनका मज़ाक बनाया गया. मिर्जा़ नौशां (ग़ालिब) ने सिर्फ मतला और मक्ता यानि प्रारंभिक और आखिरी शेर सुनाया और मुशायरा छोड़कर चले गए.
दूसरा किस्सा… फिर इसी दरबार के मुशायरे का है. यहां ग़ालिब ने जिन हालात में जो ग़जल सुनाई वो साबित करता है ग़ालिब, क्यों महान शायर के खि़बात से नवाज़े गए. दरअसल हुआ यूं था कि एक बार मिर्जा़ नौशां बाज़ार में कुछ लोगों के साथ बैठे हुए हंसी ठट्टा कर रहे थे. तभी उस्ताद ज़ोक की सवारी वहां से गुजरी.
किसी ने मिर्जा़ को कहा- देखो उस्ताद ज़ोक जा रहे हैं. मिर्जा़ ने ज़ोक पर व्यंग्य कसते हुए जोर से कहा – 'बना है शह का मुसाहिब (बादशाह का खास) फिरे है इतराता.'
इस जुमले को ज़ोक ने भी सुना और उनके साथ के लोगों ने भी. ज़ोक ठहरे बादशाह के उस्ताद, सो बुरा लगना स्वाभाविक था. ज़ोक शातिर थे, उन्होंने बदला लेने की गरज़ से अपने चमचों से कहा- अगले हफ्ते महल में मुशायरा है, उसकी दावत मिर्जा़ को दे दो और बादशाह के सामने बाज़ार वाला किस्सा दोहरा देना. चमचे बोले ज़रूर हुज़ूर मिर्जा नौशां को पिछली बार से ज्यादा बेइज्ज़त कर करके निकालेंगे मुशायरे से.
मुशायरे की शुरूआत में बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने सबका स्वागत किया और कहा कि कुछ शायर हमारे उस्ताद ज़ोक पर फि़करा कसते हैं, आगे ऐसा न हो.
योजना के मुताबिक ज़ोक का एक चमचा बोला – नहीं हुज़ूर उस्ताद की शान में ऐसी गुस्ताखी कोई नहीं कर सकता.
दूसरे ने जवाब दिया – मिर्जा़ नौशां ने सरेराह उस्ताद पर जुमला कसा है और कहा है 'बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता.'
बादशाह ने नाराज़ होकर पूछा – 'मिर्जा़ नोशां क्या यह सच है.'
जवाब में मिर्जा़ गालिब बोले – 'जी हुजूर सच है, मेरे मक्ते का मिसरा ऊला है.' यानि अंतिम शेर की पहली लाइन.
बादशाह ने पूरा मक्ता (शेर) सुनाने को कहा. जवाब में ग़ालिब ने शेर सुनाया, जो इस तरह था ' बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता, वग़रना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है.'
वाह-वाह से महफिल गूंज उठी. ज़ोक को तो पता था कि शेर की दूसरी लाइन मिर्जा़ ग़ालिब ने अभी गढ़ी है, सो फंसाने की दृष्टि से कहा – 'अगर मक्ता इतना खूबसूरत है तो पूरी ग़ज़ल क्या होगी, सुनी जाए.'
सो बादशाह ने कहा – आज के मुशायरे का आग़ाज़ ग़ालिब की इसी ग़ज़ल से होगा.
ग़ालिब ने जेब से एक परचा निकाला और ग़जल पढ़ना शुरू की – 'हरेक बात पे कहते तुम, तू क्या है, तुम्हीं कहो ये अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है'
अगला शेर – 'रगों में दौड़ते-फिरने के हम नहीं कायल, जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.'
गज़ल खत्म हुई. ग़ालिब जिस कागज में देखकर गज़ल सुना रहे थे, वो कागज उन्होंने मुस्कुराते हुए ज़ोक के खास चमचे की तरफ बढ़ा दिया, जिसने इस किस्से को बादशाह तक पहुंचाने का जाल रचा था. वो ये देखकर हैरान रह गया कि परचा तो कोरा था, दोनों तरफ से कोरा.
दरअसल, ग़ालिब ने वो गज़ल हाथ के हाथ तैयार की थी और बिना लिखे ही सीधे सुना दी थी. बाद में, इस गज़ल के तमाम शेर बहुत ज्यादा मशहूर हुए खासतौर पर 'रगों' वाला शेर. यह ग़ालिब की बेहतरीन गज़लों में शामिल की गई.
यानि एक बहुत ही शानदार और खूबसूरत गज़ल ग़ालिब ने बिना किसी तैयारी के यूं ही रच डाली थी. ऐसी गज़ल जिसे बादशाह के साथ पूरी महफिल की दाद तो मिली ही ग़ालिब से खार खाए बैठे उस्ताद ज़ोक की भी खुली और भरपूर दाद मिली. ऐसे कमाल के जादूगर शायर थे ग़ालिब.
वैसे खुल दिल से अपने दुश्मन की तारीफ के लिए ज़ोक की दरियादिली की भी तारीफ की हकदार थी. बताते चलें ग़ालिब का यह किस्सा हमने गुलज़ार द्वारा दूरदर्शन के लिए बनाए गए सीरियल 'मिर्जा़ ग़ालिब से उठाया है. क्योंकि गुलज़ार ने इस किस्से को बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में पेश किया हे.
बात गुलज़ार की हो ही रही है तो उनके कैसेट 'इंट्रोडक्शन ऑफ मिर्जा़ ग़ालिब' की बात भी कर लें. इसमें जगजीत ने ग़ालिब की गज़ल गाई है. वही 'हरेक बात पे कहते हो…'
जि़क्र निकला है तो बताते चलें ग़ालिब तो महान थे ही लेकिन हमारे दौर में ग़ालिब को जन-जन तक पहुंचाने में जगजीत सिंह का बहुत बड़ा योगदान है. बड़े साहित्यकारों, शायरों और कवियों में तो ग़ालिब इज्ज़त और अदब से लिया जाने वाला नाम था ही, उसे आज के दौर में आम लोगों तक पहुंचाने का काम जगजीत ने किया.
ऐसे में जब जगजीत और गुलजा़र मिलें तो कमाल होना क्या बड़ी बात है. सीरियल में तो इनके साथ नसीरूद्दीन भी जुड़ गए थे. बहरहाल बात गज़ल के कैसेट की हो रही थी. सो इसमें गुलज़ार ने ग़ालिब का पता जिस अंदाज़ में बताया है वैसा कोई दूसरा तो सोच भी नहीं सकता. सो बिना कांट-छांट के हूबहू गुलज़ार के शब्दों में ग़ालिब का पता.
बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ
सामने टाल की नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वा
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे
एक बकरी के मिम्याने की आवाज़
और धुँदलाई हुई शाम के बे-नूर अँधेरे साए ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ी-वालान कै कटरे की बड़ी-बी जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोल
इसी बेनूर अँधेरी सी गली-क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुरआन-ए-सुख़न का सफ़हा खुलता है
असदुल्लाह-ख़ाँ-'ग़ालिब' का पता मिलता है
गा़लिब के शेर के कई मायने होते हैं. वो एक शेर कहते हैं तो सुनने वाले उसके अलग-अलग मायने निकाल लेते हैं. उनके एक शेर से इसे समझते हैं 'कोई वीरानी सी वीरानी है, दश्त को देख के घर याद आया' इसका एक अर्थ लोग ये लगाते हैं, ये दश्त यानि जंगल की वीरानी देखकर शायर को अपना घर याद आ गया.' दूसरा मतलब देखिए. 'हम तो दश्त की वीरानी को पता नहीं क्या समझे थे, पर यहां देखकर लगा, अरे ये वीरानी भी कोई वीरानी है, वीरानी देखना हो तो हमारा घर देखें, इससे ज्यादा वीरानी तो हमारे घर में है.' शेर को जब हम इस अर्थ में लेते हैं तो ग़ालिब की शायरी एक झटके में बहुत ऊंचाई पर पहुंच जाती है.
ग़ालिब की शायरी में वेरायटी बहुत होती थी. ग़ज़ल के हर शेर में वो फिलासफी से लबरेज़ गहरी बात कहते थे. मुलाहज़ा फरमाईए. गज़ल का पहला शेर है 'हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले' आसान ज़ुबान में ग़ालिब ने कितनी बड़ी बात कही है. गज़ल के एक और शेर में वो एक शरारती और बहुत गहरी बात कहते हैं –
'निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन, बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले.'
पहली लाइन का मतलब है कि इस्लामी परंपरा के अनुसार खुदा ने नाराज़ होकर आदम (आदि मानव) को स्वर्ग से निकाल दिया था. दूसरी लाइन कहती है. शायर को उनकी मेहबूबा ने बेआबरू करके निकाल दिया ये कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है. जन्नत में खुदा ने आदम को बाहर निकाला था और यहां ग़ालिब को बेआबरू करके निकाला गया है.
अगर ग़ालिब के साथ घटी है तो फिर ये घटना कोई छोटी-मोटी तो नहीं है. अपनी तुलना वो इतनी बड़ी घटना से करते नज़र आ रहे हैं इसलिए इसे शरारती शेर कहा है. ग़ालिब न सिर्फ अपने दौर से बहुत आगे के शायर थे बल्कि ग़ालिब खुद इस बात से मुतमइन (कान्फीडेंट) थे के वो बहुत ही बड़े शायर है. ये उनका घमंड नहीं आत्मविश्वास था.
आत्मसम्मानी भी वो बहुत थे. उनकी पूरी जि़ंदगी ही मुफलिसी (गरीबी) में बीती लेकिन अपने आत्मसम्मान से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया.
विद्रोही तेवर वालेग़ालिब की शायरी तो कमाल की थी ही उनके लिखे हुए खत भी उर्दू साहित्य की अनमोल धरोहर हैं, ऐसी धरोहर कि अगर उनकी शायरी को अलग भी कर दिया जाए तो ये खत ही उन्हें साहित्य के बहुत ऊंचे मुकाम तक सहज पहुंचा देंगे. कुछ भी सुन लो, कुछ भी पढ़ लो, ग़ालिब का सबकुछ बस कमाल है, जादू है.
फिर चाहे उनका जीवन हो, उनका लिखा हुआ हो, या उनकी हाजि़र जवाबी के किस्से हों, सब कुछ बेमिसाल है. सबसे खास है उनका डगर से हटकर गज़ल पेश करने वाला अंदाज़. इसीलिए तो ग़ालिब खम ठोंक कर कह पाते हैं – 'हैं और भी दुनिया में सुखनवर (पोएट) बहुत अच्छे, कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शकील खान