अपराधियों की बायोकुंडली : पुणे की जर्मन बेकरी में हुए बम धमाकों से मिली सीख, नई तकनीक से कसेगा शिकंजा
राज्य सरकारों के साथ परामर्श के बाद इस कानून को संसदीय अनुमोदन मिलना सांविधानिक दृष्टि से बेहतर होगा।
पुणे की जर्मन बेकरी में हुए बम धमाकों के लिए जिम्मेदार इंडियन मुजाहिद्दीन (आईएम) के दुर्दांत आतंकवादी यासीन भटकल को वर्ष 2013 में जब नेपाल से गिरफ्तार किया गया, तो पूछताछ के बाद दिलचस्प खुलासा हुआ। जांच एजेंसियों को पता चला कि कोलकाता पुलिस ने भटकल को 2009 में गिरफ्तार किया था, लेकिन उसने बुल्ला मलिक नाम से झूठी पहचान बताकर, फर्जी दस्तावेजों के आधार पर जल्द रिहाई करवा ली थी।
इस मामले से सबक लेते हुए बोधगया बम धमाकों के मामले में एनआईए ने डीएनए सैंपल के आधार पर इंडियन मुजाहिद्दीन के हैदर अली को गिरफ्तार कर लिया। इन दोनों मामलों से अपराधियों की पहचान और आतंकवाद की रोकथाम के मामले में बायोमेट्रिक्स और नई तकनीक के इस्तेमाल की उपयोगिता जाहिर होती है।
अपराधों की जांच के लिए अंग्रेजों के समय बनी दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 53 और 53-अ में गिरफ्तार लोगों की मेडिकल जांच का प्रावधान है। उसके अनुसार वर्ष 1920 में बनाए गए बंदी शिनाख्त अधिनियम के तहत गिरफ्तार लोगों के फिंगरप्रिंट और फुटप्रिंट लेने के लिए पुलिस को अधिकार मिला। इंटरनेट और सोशल मीडिया के जमाने में अपराध की प्रकृति और अपराधियों के तौर-तरीके पूरी तरह से बदल गए हैं।
इसलिए अपराधियों को पकड़ने, मामले की सटीक जांच करने और दोषियों को सख्त सजा दिलवाने के लिए कानूनों में तकनीकी और आधुनिक विज्ञान के पहलुओं को शामिल करना पूरी दुनिया में जरूरी माना जाने लगा है। हाल ही में लोकसभा ने दंड प्रक्रिया शिनाख्त अधिनियम पारित कर दिया है। इस कानून के बनने के बाद गिरफ्तार लोगों की बायोकुंडली बनने का रास्ता भारत में साफ हो जाएगा।
इसके अनुसार उंगलियों और हथेली की छाप या प्रिंट, पैरों की छाप, फोटो, नमूना हस्ताक्षर के अलावा आंखों की पुतली, रेटिना, शारीरिक और बायोलॉजिकल सैंपल (डीएनए आदि) की जानकारी इकट्ठा करने और उनके विश्लेषण का पुलिस और जांच एजेंसियों को अधिकार मिल जाएगा। विपक्ष ने प्रस्तावित कानून को संविधान के अनुच्छेद 20 (3) और निजता के खिलाफ बताया है।
ऐसे कानूनों की जरूरत को तीन पहलुओं से समझना जरूरी है। पहला, अपराधियों, विशेष तौर पर आतंकवाद से लड़ने के लिए आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल को सफल बनाने के लिए अंग्रेजों के जमाने के पुराने कानूनों में बदलाव जरूरी है। दूसरा, अपराधियों की निजता के अधिकार से ज्यादा बड़ी समाज और देश की सुरक्षा है।
तीसरा, अगर कानून में खामी नहीं है, फिर भी कोई व्यक्ति या सरकार उसका दुरुपयोग करें, तो सिर्फ आशंका के आधार पर कानून की आलोचना ठीक नहीं है। इन तीन बातों को सत्ता पक्ष और विपक्ष समझें, तो सरकारों की आवाजाही से प्रभावित हुए बगैर संसदीय पटल में स्वस्थ और प्रभावी संसदीय बहस का रास्ता भी साफ हो सकता है।
राजीव गांधी की सरकार ने वर्ष 1986 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की स्थापना की थी। बाद में यूपीए सरकार में तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने अपराध और आपराधिक ट्रैकिंग नेटवर्क और प्रणाली (सीसीटीएनएस) प्रोजेक्ट की शुरुआत की, जिसमें राज्यों और पुलिस थानों को कंप्यूटर नेटवर्क से जोड़कर अपराधियों के केंद्रीकृत डाटाबेस बनाने की शुरुआत हुई। 2014 में एनडीए की सरकार आने के बाद इस प्रोजेक्ट के दूसरे चरण से इसका विस्तार हुआ।
उसके तहत आंखों की पुतली, रेटिना और चेहरे की पहचान आदि को भी डाटाबेस में शामिल किया गया। विपक्षी सांसद प्रस्तावित कानून की संसद और मीडिया में आलोचना कर रहे हैं। दूसरी तरफ विपक्षी दलों द्वारा शासित महाराष्ट्र राज्य 6.5 लाख से ज्यादा लोगों के बायोमेट्रिक डाटाबेस को जारी करने वाला पहला राज्य बन रहा है। 53 करोड़ रुपये से ज्यादा के प्रोजेक्ट के तहत सजायाफ्ता लोगों के साथ अंडर ट्रायल कैदियों के फिंगरप्रिंट, हथेलियों के निशान, चेहरे और बायोमेट्रिक डाटा को इकट्ठा करके उसे पुलिस और जांच एजेंसियों के साथ साझा करने की योजना है।
पुराने कानून के अनुसार, सिर्फ सजायाफ्ता लोगों का सैंपल लिया जाता था, लेकिन प्रस्तावित कानून के अनुसार शांति भंग की आशंका में गिरफ्तार लोगों का भी सैंपल हेड कांस्टेबल द्वारा लिया जा सकता है। पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो और स्टेट ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया की रिपोर्टों के अनुसार, राज्यों में पुलिस की हालत बहुत ही खराब है। 22 राज्यों के एक तिहाई थानों में कंप्यूटर की सुविधा नहीं है। 46 फीसदी पुलिस अधिकारियों को जरूरत पड़ने पर वाहन नहीं मिलते।
28 फीसदी पुलिस वालों को व्यक्तिगत स्तर पर स्टेशनरी का जुगाड़ करना पड़ता है। इस कानून से आतंकवाद के बड़े मामले, जिनमें सीबीआई और एनआईए जैसी जांच एजेंसियां जांच करती हैं, उनमें ही ज्यादा मदद मिलेगी। भारत में पुलिस और फॉरेंसिक लैब की खस्ता हालत को देखते हुए आम अपराधों में इस कानून के इस्तेमाल की गुंजाइश बहुत ही कम है। देश में सात केंद्रीय फॉरेंसिक लैब और राज्यों की 31 में 40 से 50 फीसदी पद रिक्त हैं।
उत्तर प्रदेश के आगरा की लैब में रिपोर्ट नहीं आने की वजह से 5,000 से ज्यादा आपराधिक मामले अटके हुए थे। इस कानून के बन जाने पर सैंपल, टेस्ट रिपोर्ट और डाटा के दुरुपयोग से किसी व्यक्ति को गलत अपराध में फंसाया गया, तो फिर उसकी पूरी उम्र कोर्ट-कचहरी के चक्कर में ही कट जाएगी। अमेरिका में एफबीआई के पास चार करोड़ से ज्यादा लोगों के फिंगरप्रिंट का डाटा है, लेकिन वहां पर डाटा की सुरक्षा और निजता के अधिकार को सुनिश्चित करने और डाटा के दुरुपयोग को रोकने के बारे में सख्त कानून हैं।
यूरोप में भूलने के अधिकार पर चर्चा हो रही है। भारत में डाटा सुरक्षा का कानून ही नहीं बना, तो फिर अनेक निरपराध लोगों के संवेदनशील डाटा को 75 साल तक रिकॉर्ड में रखने का तुक नहीं बनता। इसलिए इन बिंदुओं पर बदलाव हो, तो बेवजह के विवाद और न्यायिक हस्तक्षेप से बचा जा सकता है। संविधान के अनुसार, पुलिस, कानून और व्यवस्था राज्यों का विषय है, इसलिए राज्य सरकारों के साथ परामर्श के बाद इस कानून को संसदीय अनुमोदन मिलना सांविधानिक दृष्टि से बेहतर होगा।
सोर्स: अमर उजाला