अंतर्द्वंद्व की दीवारों के पार
इंसान की जिंदगी के आखिरी पड़ाव तक यह निरंतर गतिशील रहता है। शुरुआती दौर से लेकर अपने अंतिम समय तक वह इस जीवन को इतना उलझा देता है
अनीता जगदीश सोलंकी: इंसान की जिंदगी के आखिरी पड़ाव तक यह निरंतर गतिशील रहता है। शुरुआती दौर से लेकर अपने अंतिम समय तक वह इस जीवन को इतना उलझा देता है कि चाह कर भी अपने द्वारा रचे गए चक्रव्यूह से निकल नहीं पाता। सामाजिक और निजी तौर पर इंसान ताउम्र सिर्फ सगे-संबंधियों और अपने परिवार को सामने रख कर जीवन में आगे बढ़ता है। वह यह भूल जाता है कि उसका स्वयं का भी एक अस्तित्व है, अपनी पहचान है, जिसके साथ वह इस धरा पर जन्मा है।
लेकिन नहीं। अपनी सब ख्वाहिशों और सपनों को अपने अंदर दफ्न करके परिवार में सबकी इच्छाओं का मान रखते हुए वह अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देता है। अपने स्व के प्रति जिम्मेदारियों को कभी नहीं निभा पाता और न ही दूसरों की जिम्मेदारियों से मुक्त हो पाता है। क्या यही विडंबना है जीवन की?
समाज के मानस से संचालित खानदान की खोखली परंपराओं, रीति-रिवाजों को ही देखा जा सकता है, जिन्हें न जाने सभी कब से ढोए चले जा रहे हैं। इन सबको निभाते हुए न जाने कितनी पीढ़ियां स्वाहा हो चुकी हैं और आने वाले समय में आगे और न जाने कितनी अपने लिए संघर्ष करती नजर आएंगी। इस जर्जर होते समाज से, पूर्वजों के द्वारा बनाई गई बरसों पहले की परंपराओं से, जिसे आज तक परिवार के सदस्य पीढ़ी दर पीढ़ी न चाहते हुए भी निभा रहे हैं, उन्होंने यथास्थितिवाद और जड़ता के सिवा क्या हासिल किया? हालांकि ऐसा नहीं है कि समाज में बदलाव नहीं हुआ।
समय-समय पर जब-जब रिश्तों में विद्रोह के स्वर गूंजे हैं, तब-तब न चाहते हुए भी संकीर्ण मानसिकता वाले समाज को भी बदलना पड़ा है। प्रश्न उन सभी सामाजिक रिवायतों से जीवित रिश्तों से है जो अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए कुछ ऐसे फैसले कर डालते हैं, जो बच्चों की जिंदगी पर उम्र भर के लिए अभिशाप बन जाते हैं।
मां-पिता अपनी जिम्मेदारी का बोझ अपने कमजोर कंधों से उतार कर अपनी युवा पीढ़ी के कंधों पर ढाल देते हैं, यह कहते हुए कि ये हमारे बड़ों के बनाए गए रीति-रिवाज हैं, जिनको निभाना हमारे लिए अत्यावश्यक है। मगर वे यह भूल जाते हैं कि इसमें पिसने वाली उनकी अपनी संतानें हैं। सच यह है कि जिस द्वंद्व से परिवार के बड़े अपने-अपने दौर में गुजरे, वही वे अपनी संतानों में स्थानांतरित कर देते हैं। यही जड़ता पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होती रहती है।
विवाह जैसे रिवाज पर गौर किया जा सकता है, जहां खानदानी रस्मों का हवाला देकर मां-पिता अपने कहे जाने वाले रिश्तों के हाथों इतने मजबूर हो जाते हैं कि बिना सोचे-समझे बच्चों को जीवन भर के लिए एक ऐसे रिश्ते में बंधने पर मजबूर कर देते हैं, जो उनके लिए कभी तकलीफदेह भी हो सकते हैं। इसे परंपरा के किस दर्जे में रख कर देखा जाएगा? बच्चे जीवन भर उस रिश्ते को न चाहते हुए भी निभाते हैं और बिना शोर के खुद को अपने में कहीं जिंदा ही दफ्न कर लेते हैं, उसी को अपनी तकदीर का फैसला मानकर समर्पण कर देते हैं।
फिर एक दिन अपने अंतर्द्वंद्व से हारकर जिंदगी खत्म हो जाती है। वह भी एक ऐसे समाज के सामने, जो सही मायनों में कभी किसी के साथ चला ही नहीं। हमारे समाज में आए दिन परिवारों, गांवों और शहरों में ऐसा होता चला आ रहा है, जहां वैवाहिक जीवन की दर्दनाक छाया एक उभरती हुई प्रतिभा को लील जाती है। सभी सपने दम तोड़ देते हैं।
तब क्या रह जाता है मां-पिता के हाथ में, सिवा बेबसी, बेचारगी और जीवन भर का पछतावे के? कोई रिश्ता या कोई कानून क्या हमारी भावी पीढ़ी को बचा पाएगा? सवाल है कि परिवार के बड़े और समाज की आन रखने वाले क्यों नहीं बच्चों को ऐसे घुटन भरे रिश्ते से निकलने के लिए, अपने सपनों को नया आसमान देने के लिए और खुल कर अपनी जिंदगी को जीने के लिए आजादी मुहैया करा पाते हैं?
क्या कभी वह वक्त आएगा, जब ऐसा संभव हो पाएगा और हम अपने अंतर्द्वंद्व से बाहर निकल कर खुली फिजाओं में सांस ले पाएंगे? चहकता हुआ बचपन युवावस्था की मजबूत दहलीज को छूकर अपने आज और आने वाले कल को बेहतर बनाने के लिए आजाद होगा? यही सोच कर राहत मिलती है कि बदलाव सृष्टि का नियम है और हर रिश्ते में एक दूसरे के प्रति सकारात्मकता ही बदलाव की नींव बनेगी।
कोशिशें अगर की जाएं, तो बंदिशें भी टूटेंगी। परंपराएं बदलेंगी और बच्चों के सामने विकल्प रखे जाएंगे, उनकी उड़ान के लिए खुला आसमान होगा तो यकीनन कभी कोई जिंदगी नाहक खत्म नहीं होगी। हर सुबह नई उम्मीदों से भरी होगी और मन अंतर्द्वंद्व के लिए अभिशप्त नहीं होगा।