जिस कोरोना संकट को लेकर देश बेफिक्र हो गया था, उसने ज्यादा ताकत से पलटवार करके सारी व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया है। पहले से लचर चिकित्सा व्यवस्था चरमरा कर रह गई है। अस्पतालों में बेड, दवाइयां और वेंटिलेटर नहीं हैं।
एक तो नई महामारी का कोई कारगर इलाज नहीं है, दूसरा इस बीमारी में काम आने वाली तमाम जरूरी दवाइयां बाजार से गायब हो गई हैं। देश के लाखों लोग कातर निगाहों से शासन-प्रशासन की ओर देख रहे हैं कि कोई तो राह निकले। सरकार का व्यवस्था पर नियंत्रण कमजोर होता दिख रहा है। हमारे पास न तो पर्याप्त मेडिकल ऑक्सीजन की उपलब्धता है और न ही उपलब्ध ऑक्सीजन को अस्पतालों तक पहुंचाने की कारगर व्यवस्था। इस महामारी में किसी हद तक शुरुआती दौर के उपचार में कारगर बताये जा रहे रेमडेसिविर इंजेक्शन के नाम पर भारी कालाबाजारी की जा रही है। जीवन के संकट से जूझ रहे मरीजों से इनके मुंहमांगे दाम वसूले जा रहे हैं।
मरीजों से पचास हजार से लेकर एक लाख तक की कीमत वसूले जाने की शिकायतें मिल रही हैं। देश में दवाइयों और इंजेक्शनों के तमाम जमाखोर सक्रिय हो गये हैं। इस जमाखोरी पर रोक लगाने की कोशिशें सफल होती नजर नहीं आ रही हैं। संकट में पड़े अपनों का जीवन बचाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। इसी आतुरता का फायदा उठाने के लिये आपदा में अवसर ढूंढ़ने वाले मनमाने दाम वसूल रहे हैं।
हद तो तब हो गई जब कई जगह जीवनरक्षक इंजेक्शनों की जगह नकली इंजेक्शन तैयार करने की खबरें आ रही हैं। इस मामले में कुछ गिरफ्तारियां भी हुई हैं। कालाबाजारी के इस गोरखधंधों में कुछ दवा निर्माताओं और डॉक्टरों तक की गिरफ्तारी हुई हैं। लेकिन इस कालाबाजारी पर पूरी तरह रोक लगाने की कोशिशें सफल होती नजर नहीं आती। ऐसा नहीं हो सकता कि ऐसी कालाबाजारी पर नियंत्रण करने वाले विभागों व पुलिस को इंसानियत के ऐसे दुश्मनों की कारगुजारियों की भनक न हो। मगर, समय रहते ठोस कार्रवाई होती नजर नहीं आती।
क्रेडिट बाय दैनिक ट्रिब्यून