बग्गा गिरफ्तारी प्रकरण: पुलिस का नेताओं की गिरफ्तारी और बचाव के लिए दुरुपयोग देश के लिए खतरनाक है

बग्गा गिरफ्तारी प्रकरण

Update: 2022-05-08 07:08 GMT
संदीपन शर्मा |
हाल ही में हमने खबरों में तजिंदर पाल सिंह बग्गा (Tajinder Pal Singh Bagga) की गिरफ्तारी और रिहाई का तमाशा देखा. इस पूरे परिदृश्य की तुलना मध्य एशिया की जनजातियों द्वारा खेले जाने वाले मध्ययुगीन खेल से की जा सकती है जिसे बुजकाशी नाम दिया गया था. बुजकाशी खेल में घोड़े पर सवार खिलाड़ियों का लक्ष्य एक बकरी के शव को एक घेरे में रखना होता था. खेल में बढ़त बनाने के लिए वे एक-दूसरे को कोड़े और लातों से बुरी तरह मारते थे और बेरहमी से बकरी के मृत शरीर को छीनने की कोशिश करते थे. इस तरह उनका मकसद बकरी के शव को एक घेरे में ले जाना होता था जिसे न्याय का चक्र कहा जाता था.
दिलचस्प बात यह है कि घुड़सवार ये खेल अपने लिए नहीं बल्कि उन अमीर सरदारों का प्रतिनिधित्व करने के लिए खेलते थे, जो उनको किराए पर लेकर प्रशिक्षित करते थे और उनकी पसंद का घोड़ा उनको देते थे. अब बात करते हैं शुक्रवार को बग्गा के साथ हुए खेल की. यहां बग्गा की कल्पना बकरे के रूप में करिए और घुड़सवार थी तीन राज्यों की पुलिस जो अपने राजनीतिक आकाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थी. अब सोचिए कि हम कहां जा रहे हैं: वापस उसी मध्यकालीन युग में क्या जब राज्यों पर निर्मम और कलह में झोंकने वाले सरदारों का राज होगा! हमारे समय में प्रतिद्वंद्वियों से हिसाब चुकता करने के लिए, आलोचकों को चुप कराने के लिए और विरोध में उठने वाली आवाज को तुच्छ आरोपों में सलाखों के पीछे डालने के लिए पुलिस का दुरुपयोग राजनीति के खेल का एक अहम हिस्सा बन चुका है.
सरकारी ढांचे और शक्तियों का हुआ दुरुपयोग
सत्ता में हर सरकार ने अपने प्रतिद्वंद्वी से किसी न किसी राज्य में सीखा है कि पुलिस और कानून को कैसे अपना हथियार बनाया जा सकता है और इस क्रूर खेल को कैसे मोटी त्वचा कर और निर्ममता के साथ खेलना है. कुछ भी हो, लेकिन शुक्रवार से पहले भारत ने एक राज्य की पुलिस को दूसरे राज्य की पुलिस के खिलाफ खेलने का खौफनाक खेल इससे पहले नहीं देखा था. शुक्रवार को जिस तरह पुलिस का इस्तेमाल बीजेपी के दिल्ली प्रवक्ता को 'गिरफ्तार' करने और 'बचाने' के लिए किया गया, उससे लोगों ने सरकारी ढांचे और राज्य सरकारों में निहित शक्तियों के दुरुपयोग को खुले तौर पर देखा.
बग्गा कोई संत नहीं हैं. उनको सोशल मीडिया पर एक्टिव एक उपद्रवी कहा जा सकता है जो अक्सर प्रतिद्वंद्वियों पर हमलों के लिए एक घटिया भीड़ का नेतृत्व करता है. मानवाधिकारों के संरक्षक, स्वतंत्र भाषण के संरक्षक या सभ्य नेता के रूप में उनका अपना रिकॉर्ड ही सही नहीं है. फिर भी, उन्हें चुप कराने के लिए जिस तरह पंजाब पुलिस का दुरुपयोग किया गया, वह घोर निंदनीय है. इस पूरे नाटक को रचने वाली आम आदमी पार्टी अगर बग्गा के खिलाफ अपने आरोपों को लेकर गंभीर होती तो उसे पहले दिल्ली पुलिस से संपर्क करना चाहिए था और उन्हें मामले की जांच करने देना चाहिए था. लेकिन पंजाब पुलिस पर दबाव बनाकर उसे पूरे प्रकरण में शामिल कर पार्टी ने साबित किया है उसने कितने शर्मनाक और क्रूर तरीके से ये साजिश रची थी.
केजरीवाल ने पुलिस को बनाया बदले का हथियार
यहां अरविंद केजरीवाल के बारे में भी कुछ कहना जरूरी है. कहा जाता है कि सत्ता मिलने पर ही इंसान का असली चेहरा सामने आता है. और यह भी कहा जाता है कि जब सत्ता पूर्ण रूप से मिलती है, तो वो उतनी ही मति भी भ्रष्ट करती है. पंजाब पुलिस को बदले और सजा का हथियार बनाने के हालिया प्रकरण से दिल्ली के मुख्यमंत्री ने इन दोनों ही बातों को सच करार दिया है. बंदर के हाथ में तलवार वाली पुरानी कहावत की तर्ज पर पंजाब को अपने हाथ में लेने के बाद केजरीवाल लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो रहे हैं. इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, कुमार विश्वास और बग्गा जैसे प्रतिद्वंद्वियों के साथ उनके बुजकाशी के इस खेल को रोकने की जरूरत है.
बीजेपी के लिए भी एक सबक है ये घटना
लेकिन, यहां बड़ा सबक बीजेपी के लिए भी है. बग्गा की गिरफ्तारी के तुरंत बाद, पार्टी के वर्कर्स और ट्रोल्स ने घटना को मुक्त भाषण, संघवाद और कानून व्यवस्था के खत्म होने का शोक मनाना शुरू कर दिया. लेकिन बीजेपी ने भी, खासतौर पर पिछले कुछ वर्षों में, इस तरह के गंभीर प्रहार किए हैं. कुछ दिन पहले ही, असम सरकार ने ट्विटर पर की गई टिप्पणियों के लिए गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी को गिरफ्तार करने के लिए अपने राज्य की पुलिस भेजी थी. यह अंतरराज्यीय गिरफ्तारी कई नियमों को नजरअंदाज करते हुए की गई थी जिनको बाद में एक स्थानीय अदालत ने उजागर किया और विधायक को जमानत दे दी. घटनाक्रम को देखा जाए तो बग्गा की गिरफ्तारी इसी से प्रेरित लग रही है, बस फर्क यही है कि मेवाणी के मामले में दो राज्यों की पुलिस का आमना-सामना नहीं हुआ.
केंद्र में बीजेपी सत्ता में है. कई राज्यों में पार्टी की सरकारें हैं तो कई जगह उसके सहयोगी दल सत्ता में हैं. अतीत में बीजेपी ने सरकार ने किसानों, नागरिकता अधिनियम में बदलाव का विरोध करने वाले लोगों और यहां तक कि सरकार की आलोचना करने के लिए छात्र नेताओं तक पर चुनिंदा आरोप लगाए हैं. वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति असहिष्णु और धार्मिक और राजनीतिक अल्पसंख्यकों के प्रति प्रतिशोधी रहे हैं. लेकिन, भारत के बड़े हिस्से उन पार्टियों द्वारा चलाए जा रहे हैं जो बीजेपी के प्रति शत्रुतापूर्ण होती जा रही हैं. और, नागरिक स्वतंत्रता पर इन हमलों का विरोध करने के बजाय उनको भाजपा के ही बनाए हुए रास्तों पर चलना ज्यादा सुविधाजनक लग रहा है.
मध्ययुगीन अराजकता की ओर ले सकती है ये घटनाएं
यह प्रतिस्पर्धी संघवाद आने वाले समय में एक ऐसी स्थिति पैदा कर सकता है जहां राज्य की संस्थाओं का इस्तेमाल एक दूसरे पर निशाना साधने के लिए किया जा सकता है. भारत का आंतरिक युद्ध जल्द ही उसे मध्ययुगीन अराजकता की ओर ले जाएगा, जहां संस्थाएं बुजकाशी के बकरे के रूप में बदल जाएंगी. दुर्भाग्य से, उन लोगों के लिए जो अभी चुप्पी साधे हुए हैं (या अपने चुने हुए नायकों के कारनामों पर ताली बजा रहे हैं), तब तक उन लोगों के लिए बहुत देर हो चुकी होगी – जब तक वे ये जानेंगे कि इन खतरनाक खेलों के असली बकरे तो वो ही हैं. और यहां न्याय का कोई चक्र नहीं है, बल्कि है तो अन्याय का सिर्फ एक चक्रव्यूह.


(आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

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