सामाजिक परिवर्तन के अग्रदूत बाबा साहेब प्रतीक पूजा की राजनीति के लिए चुनौती हैं
बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर के राजनैतिक वारिस बनने की होड़ वर्तमान दौर की एक ऐसी हकीकत है
Faisal Anurag
बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर के राजनैतिक वारिस बनने की होड़ वर्तमान दौर की एक ऐसी हकीकत है जिसमें बाबासाहेब के विचारों को ही धूमिल करने के प्रयास तेज हैं. चूंकि भारतीय राजनीति में बाबा साहेब दलित वोट हासिल करने के प्रतीक पूजा की तरह बनाने की प्रतिस्पर्धा का ही नतीजा यह है कि जैसे जैसे बाबा साहेब का संसदीय चुनावी राजनीति में महत्व बढ़ता जा रहा है सामाजिक परिवर्तन की धारा उतनी ही कुंद होती जा रही है. इतिहास गवाह है कि जब कभी सक्रिय विचारकों को प्रतीक में बदला गया उनकी विचारधारा को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है. लेकिन बाबा साहेब के संदर्भ में क्या इतिहास को दुहराने की यह प्रवृति कामयाब हो सकती है.
बाबा साहेब के योगदान,विचार और संघर्ष की ताकत,ऊर्जा और गहरायी राजनीति में इस्तेमाल करने की प्रवृति को शायद ही सफल होने देगी. यही कारण है कि बाबा साहेब की स्मृति भारत की जाति संरचना, जाति उन्मूलन, जनतंत्र में अल्पसंख्यक समूहों के अधिकार के साथ आम नागरिकों के अधिकार के सवाल को जीवंतता बन दस्तक में बदल जाती है. बाबा साहेब की जयंती वास्तव में भारत के संविधान प्रदत्त मूलभूत अधिकारों, सामाजिक जड़ता को तोड़ने और एक नए समानता मूलक इंसाफ की व्यवस्था के संदेश से ओतप्रोत करता है.
संविधान सभा में दिए गए अपने अंतिम भाषण में बाबा साहेब ने भारत के नागरिकों को याद दिलाया था कि अनेक अंतरविरोधों के नए दौर में भारत प्रवेश कर रहा है. बाब साहेब की यह चेतावनी आज के दौर में भी प्रासंगिक है. बाबा साहब ने कहा था कि मैं मानता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वो लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाएगा, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा.
दूसरी तरफ अगर संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो यदि वो लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाएगा वो अगर अच्छे हुए तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा. उन्होंने कहा था कि 26 जनवरी 1950 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र होगा लेकिन उसकी स्वतंत्रता का भविष्य क्या होगा? बाबा साहेब ने यह भी कहा था " जब हमारा सामाजिक मानस अलोकतांत्रिक है और राज्य की प्रणाली लोकतांत्रिक, ऐसे में कौन कह सकता है कि भारत के लोगों तथा राजनीतिक दलों का भविष्य का व्यवहार कैसा होगा?" इस चेतावनी से और संशय से स्प्ष्ट है कि बाबा साहेब आजादी के बाद एक संवैधानिक लोकतंत्र के माध्यम से एक ऐसे समाज का पुनर्सृजन करना चाहते थे, जिसमें भारतीय समाज की सामाजिक भेदभाव,उत्पीड़न और बुराइयों के लिए कोई जगह ही नहीं हो.
लेकिन इस सवालों पर आज की राजनीति विचार करने के बजाय वह बाबा साहेब अंबेडकर के विचारों के कुछ ऐसे उदाहरणों का इस्तेमाल करती है जो उसकी राजनीति को तर्क और मान्यता प्रदान कर सके. लेकिन बाबा साहेब के लेखन और भाषणों का मूल स्वर इस तरह इस्तेमाल करने की प्रवृति को चुनौती पेश करती है. आज के राजनैतिक परिवेश की हकीकत यह है कि इस समय भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी के बीच बाबा साहेब की विरासत की दावेदारी का इकलौता वारिस बनने की होड़ चरम पर है. लेकिन दोनों ही पार्टियां अपनी अपनी सामाजिक और राजनैतिक मान्यताओं के अनुकूल डॉ. अंबेडकर के विचारों के बीच से कुछ उद्धरण चुनती हैं.
दलित पार्टियों के आधार को निगलने की प्रवृति के बीच बाबा साहेब के बहाने समाजिक जड़ता को बनाए रखने का मकसद साफ नजर आता है. लेकिन ज्योति बा फुले और डॉ. अंबेडकर की धारा वास्तव में वर्चस्व की सांस्कृतिक वर्चस्व यानी हेजोमोनी आफ कल्चरल इथोस की परिघटना के खिलाफ एक नए किस्म के समता समाज की विज्ञान सम्मत वैचारिक चेतना के निर्माण की वकालत करता है.एक लंबे लेख में बाबा साहेब में लिखा था ""मेरी राय में इसमें कोई संदेह नहीं कि जब तक आप अपनी सामाजिक व्यवस्था नहीं बदलेंगे,तब तक कोई प्रगति नहीं होगी. जाति,व्यवस्था की नींव पर आप कोई निर्माण नहीं कर सकते.
आप राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते और न ही नैतिकता का निर्माण कर सकते हैं. जाति,व्यवस्था के आधार पर आप कोई भी निर्माण करेंगे, वह चटक जाएगा और कभी भी पूरा नहीं होगा. बाबा साहेब को सही तरीके से तभी सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है जब जाति उन्मूलन का राष्ट्रीय अभियान को पूरा किया जाए और एक ऐसे भारतीय समाज का निर्माण हो जिसमें जाति व्यवस्था का कोई अवशेष न बचे. भारत की जाति व्यवस्था एक नस्लवादी भेदभाव का भारतीय संस्करण है और बाबा साहेब के सपनों का भारत और लोकतंत्र तभी जमीन पर उतरेगा जब उनके समाजिक क्रांति को अंजाम दिया जाए.
आज की राजनीति का मकसद सामाजिक क्रांति नहीं इसलिए बाबा साहेब के सच्चे अनुयायियों को एक दीर्घकालिक संघर्ष की दिशा की जरूरत है.राजनीतिक होड़ के इस दौर में डॉ. आंबेडकर केवल दलितों के वोट की गारंटी भर नहीं हैं. वे वास्तव में सामाजिक परिवर्तन के विचारों के अग्रदूत के बतौर बारबार उठ खड़े होते हैं और प्रतीक पूजा की राजनीति को चुनौती देते हैं.