Azadi Ka Amrit Mahotsav: लोगों के स्वप्नों का मातृदेश, आर्थिक पिछड़ापन बड़ा यथार्थ

यह देश एक सौ पैंतीस करोड़ का मातृदेश ही नहीं है, एक सौ पैंतीस करोड़ लोगों के स्वप्नों का मातृदेश है।

Update: 2022-08-15 01:57 GMT

भारत एक विशाल जनतंत्र है। इसका अपना इतिहास है, समृद्ध परंपराएं हैं, संस्कृति है और मूल्य दृष्टि भी है। भारत को आत्मसात करने के लिए उसके वैविध्य को हृदय से स्वीकारना पड़ता है। स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाते हुए यह सोचना भी बेहद जरूरी है कि देश का यथार्थ किस दिशा की ओर अग्रसर है। हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था समीपस्थ देशों की तुलना में बहुत अच्छी है, न्यायिक व्यवस्था भी ठीक है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी, शिक्षा, कृषि तथा मानव विकास के क्षेत्र में भारत की गति प्रोन्नत है। इतने पर भी भारत एक 'विकसित देश' नहीं है। जिसे वास्तविक विकास कहते हैं, वह हमने अर्जित नहीं किया है। जब हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उपलब्धियों की बात करते हैं, तो उन पाठशालाओं के बारे में हमें सोचना है, जहां के छात्रों को बुनियादी सुविधाएं तक प्राप्त नहीं हैं। मानव विकास की बात करते हुए हमें चाहिए कि बेरोजगारी की भीषण स्थिति पर भी नजर डालें।




भारत में 'भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान', 'भारतीय प्रबंध संस्थान' और 'भारतीय विज्ञान संस्थान' जैसी संस्थाएं हैं। पर प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र के समग्र विकास की अनदेखी की गई। आज स्थिति में बदलाव आया है, पर आर्थिक पिछड़ापन बड़ा यथार्थ है। भारत में छोटे-मोटे कृषकों की संख्या बहुत ज्यादा है। उनकी हालत आज भी गोदान के होरी से भिन्न नहीं है। कौशल-विकास में आज युवाओं को प्रशिक्षित करने के कई प्रकार के कार्य संपन्न हो रहे हैं। पर

बेरोजगारी से निपटना है, तो विविधोन्मुखी उद्योगों का विकास अनिवार्य है। उन्नत नागरिकबोध विकसित करने के लिए राजनीतिक दृष्टि और आदर्श की आवश्यकता है। यह चुनावी राजनीति से भिन्न है। चुनावी राजनीति ने अधिकार केंद्रित राजनीति को प्रश्रय दिया है। अधिकार केंद्रित राजनीति ने धर्म तथा जाति को प्रमुख माना है। इसका एक दुष्परिणाम यह है कि मानवीयता तथा जनतांत्रिकता के लिए जगह नहीं रह गई है। इसने असहिष्णुता को जगह दी है। इस वातावरण ने बौनी संस्कृति को जन्म दिया है, जिसमें सच्ची मानवीयता और धार्मिकता विलुप्त होने लगती है।

इन सब के बावजूद भारत की संस्कृति की कई खूबियां हैं। राष्ट्रीयता के साथ हमारी अलग-अलग उपराष्ट्रीयताएं हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता को परिभाषित किया, धार्मिक सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया, जातिविहीन समाज की परिकल्पना की और मानवीयता को तीर्थ सम स्वीकार किया। एक विशाल देश के रूप में, वैश्विक संगठनों में, विभिन्न देशों के बीच संबंध बनाए रखने में, विश्व व्यापार-संबंधों में भारत की अस्मिता स्वीकृत है। स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं वर्षगांठ के अवसर पर भारत को सुनिश्चित करना है कि इस देश की बाहरी चमक-दमक ही नहीं, आंतरिक चमक-दमक भी आकर्षक है। स्वतंत्रता को हमें पुनर्परिभाषित करना है, जिसमें अधिकारग्रस्त राजनीति का आतंक न हो, विकास की ओर अग्रसर देश में कोई समाज अवहेलित न हो, उसे पिछड़ेपन का आतंक सहना न पड़े, किसी को असहिष्णुता का सामना न करना पड़े। यह देश एक सौ पैंतीस करोड़ का मातृदेश ही नहीं है, एक सौ पैंतीस करोड़ लोगों के स्वप्नों का मातृदेश है।

सोर्स: अमर उजाला

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