चीन के विरुद्ध एकजुट हों एशियाई देश, दक्षिण चीन सागर और हिंद-प्रशांत के देशों को नाटो जैसा कोई सैनिक संगठन बनाने की जरूरत
सोर्स- जागरण
विजय क्रांति। अमेरिकी संसद की स्पीकर नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा के जवाब में चीन ने ताइवान को घेरकर उसके आसपास के समुद्री क्षेत्र में जिस तरह का आक्रामक सैनिक अभ्यास किया, उसने चीन-ताइवान के रिश्ते को वास्तविक युद्ध की आशंकाओं के स्तर से बहुत आगे की हद तक पहुंचा दिया है। इस कथित अभ्यास में जिस तरह चीनी युद्धपोतों ने ताइवान की समुद्री सीमाओं को लांघकर गोलाबारी की और चीनी विमानों और मिसाइलों ने ताइवानी आसमान को चीरते हुए दूसरी ओर जापान के समुद्री इलाकों तक बमबारी की, वह किसी भी मायने में सैनिक हमले से कम नहीं था। गनीमत रही कि चीनी नौसेना और वायुसेना की कोई मिसाइल गलती से या जानबूझकर ताइवान की मुख्य भूमि और नागरिकों पर नहीं गिरी, वरना यह 'अभ्यास' सचमुच के युद्ध में बदल जाता।
इसके बावजूद जिस दादागीरी भरे अंदाज में चीनी सेना ने ताइवान को धमकाया, उससे इसमें संदेह नहीं कि वह ताइवान पर हमले के लिए तैयार भी है और आमादा भी। चार से सात अगस्त के बीच चले इस 'अभ्यास' ने चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की इस घोषाणा को अर्थवान बना दिया है कि ताइवान में चीन का एकीकरण चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का ऐतिहासिक मिशन भी है और उसकी अडिग प्रतिबद्धता भी। चीन की इस कार्रवाई ने न केवल दक्षिण चीन सागर क्षेत्र, बल्कि पूरे हिंद-एशिया के भू-राजनीतिक और सैनिक वातावरण को बदल डाला है।
पिछले कई दशक से चीन की आक्रामकता के निशाने पर बैठे ताइवान, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम, फिलिपींस, मलेशिया और आस्ट्रेलिया जैसे देशों को अब यह स्पष्ट हो चुका है कि उनकी भूमि और समुद्री इलाकों पर चीन के दावे केवल गीदड़-भभकियां नहीं, बल्कि ऐसे इरादे हैं, जिन्हें वह एक-एक कर वास्तविकता में बदलने पर आमादा है। चीन की भीतरी राजनीति और रणनीति पर नजर रखने वाले अब इस पर लगभग सहमत हैं कि चिनफिंग के नेतृत्व वाला चीन दुनिया पर अमेरिकी प्रभुसत्ता को हटाकर अपनी प्रभुसत्ता जमाने का फैसला कर चुका है।
ताइवान को घेरकर किए गए चीनी 'युद्धाभ्यास' के बाद पिछले दो-तीन साल से चली आ रही यह आशंका भी सही सिद्ध हुई कि अक्टूबर 2022 में चीनी कांग्रेस (संसद) के अधिवेशन से पहले चिनफिंग ताइवान या भारत के खिलाफ कोई ऐसी सैनिक कार्रवाई करेंगे, जिसके बाद लगातार तीसरी बार चीन का राष्ट्रपति बनने के उनके दावे पर चीनी संसद मुहर लगा दे।
चीन से आ रहे संकेत यह बता रहे कि तीसरी बार राष्ट्रपति चुने जाने के बाद शी चिनफिंग अपने चाटुकारों के सहारे आजीवन चीन के सर्वोच्च नेता बने रहने के प्रस्ताव पर मुहर लगवा लेंगे। पड़ोसी देशों के लिए असली संकट चीनी संसद के इस कदम के बाद शुरू होगा। तब चीनी सेना अपने दावों को मूर्त रूप देने का अभियान शुरू करेगी। चीन के निशाने पर बैठे ये देश फिलहाल इसी उधेड़बुन में व्यस्त हैं कि वह अपने इस अश्वमेघ यज्ञ की शुरुआत कहां से करेगा? भले ही इनमें से कुछ देशों ने चीनी खतरे को देखते हुए आपसी संवाद शुरू कर दिया हो, लेकिन इस संवाद से वह गंभीरता अभी भी नदारद है, जो युद्ध की हालत में दोस्तों की ठोस किलेबंदी के लिए जरूरी होती है।
कुछ लोग अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर बनाए गए क्वाड को एक बड़ा कदम मान रहे हैं, लेकिन असलियत यह है कि 2007 में इसके शुरू होने के बाद बीते 15 वर्षों में चीन के घोर आक्रामक रूप धारण करने के बावजूद यह संगठन अभी भी आधे-अधूरे मन से चलने वाले एक अनौपचारिक विचार समूह के स्तर से आगे नहीं बढ़ पाया है।
शी के इरादों से दक्षिण चीन सागर और हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों के लिए तीन बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं। एक तो यह कि इनमें से एक भी देश ऐसा नहीं, जो चीन के आक्रामक व्यवहार को सैन्य या आर्थिक स्तर पर अकेले झेलने की क्षमता रखता हो। इसलिए चीन से अपनी क्षेत्रीय और राजनीतिक प्रभुसत्ता बचाने के लिए अकेले-अकेले उसका सामना करने के बजाय उन्हें सैनिक और आर्थिक स्तर पर एक ऐसा साझा मोर्चा बनाना होगा, जो चीन को प्रभावशाली टक्कर दे सके और चीन के मन में भय पैदा कर सके।
दूसरी बात यह कि इन देशों को अमेरिका के भरोसे रहने की अपनी पुरानी मानसिकता त्यागनी होगी, क्योंकि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद का इतिहास दिखाता है कि युद्ध की हालत में अमेरिका के भरोसे रहना आत्मघाती साबित हो सकता है। दक्षिण कोरिया, दक्षिण वियतनाम, तिब्बत और अफगानिस्तान के उदाहरण दिखाते हैं कि युद्ध के मोर्चे पर अपनी हालत पतली होती देख अमेरिका अपने मित्रों को अकेला छोड़ देता है। 1971 में वह अपने स्थायी मित्र पाकिस्तान के दो टुकड़े होते हुए देखता रहा। अमेरिका ने घोर संकट में घिरे मित्र देश यूक्रेन की आशा पर भी पानी फेर दिया।
तीसरी बात यह कि इन देशों को चीन की वन चाइना पालिसी के हौवे से मुक्त होकर ताइवान को अपने संयुक्त मोर्चे के एक ठोस सदस्य के रूप में स्वीकारना होगा, क्योंकि अगर ताइवान पर चीन कब्जा करने में कामयाब हो जाता है तो पूरे दक्षिण चीन सागर और हिंद-प्रशांत से जुड़ा एक भी देश अपनी सार्वभौमिकता बचा नहीं पाएगा। उस हालत में भारत पर हमला करने का उसका दुस्साहस भी चरम तक पहुंच चुका होगा और अमेरिका का रुतबा उत्तर अमेरिका महाद्वीप की एक क्षेत्रीय ताकत से ज्यादा नहीं रह जाएगा।
ऐसे में चीन से त्रस्त देशों को भारत की उस लोककथा से सबक लेना होगा, जिसमें अपनी मृत्यु से पहले एक पिता अकेली-अकेली दातुन और दातुनों के बंडल की ताकत का उदाहरण देकर अपने बेटों को यह समझाता है कि अगर वे एकजुट हो जाएं तो बड़े से बड़ा ताकतवर इंसान भी उन्हें नुकसान नहीं पहुंचा सकता। इसलिए यह जरूरी हो चुका है कि दक्षिण-चीन सागर और हिंद-प्रशांत के देशों को क्वाड जैसे दंतहीन संगठन की नहीं, बल्कि एशियाई नाटो जैसे सैनिक संगठन की जरूरत है, जो चीनी तानाशाह शी की रुह को भी कंपा सके। इस जरूरत की पूर्ति के लिए भारत को पहल करने में देर नहीं करनी चाहिए।