माथे पर रिसता घाव लिए अश्वत्थामा
युग बदलता है, जिंदगी का महाभारत नहीं बदलता। अब न अर्जुन है, न जूझता हुआ अभिमन्यु। बस बेकारी की इन लंबी-चौड़ी अंधेरी बस्तियों में अश्वत्थामा भटकते हैं।
सुरेश सेठ; युग बदलता है, जिंदगी का महाभारत नहीं बदलता। अब न अर्जुन है, न जूझता हुआ अभिमन्यु। बस बेकारी की इन लंबी-चौड़ी अंधेरी बस्तियों में अश्वत्थामा भटकते हैं। नई शिक्षा नीति की बैसाखियों को तलाशते हैं, लेकिन इनके ऊपर डिस्को युग का शोर-शराबा तारी हो जाता है और इसमें से पुस्तक संस्कृति से छूटा हुआ अश्वत्थामा अपने माथे का रिसता घाव लेकर द्वार-द्वार भटकता और बाद में अपने आप को किसी राहत संस्कृति के हवाले कर देता है।
अब तो चक्रव्यूह तोड़ते हुए अभिमन्यु को महारथियों द्वारा घेर कर मार दिए जाने की कहानी सुनाई देती है। उसने अपनी मां के पेट में रहते हुए पिता से चक्रव्यूह में घुसने की कला तो जान ली थी, लेकिन इससे पहले कि वह चक्रव्यूह तोड़ कर निकल जाता और उसका रास्ता समझ लेता, उससे पहले ही मां को नींद आ गई और इधर सरे-मैदान अभिमन्यु को महारथियों ने घेर लिया। वह खेत रहा।
कितना वक्त बीत गया। अब जीवन का महाभारत लड़ते हुए अर्जुन का धणुष-वाण 'शार्ट कट' संस्कृति के सहारे कमंद लगा, किला विजित करने के बाद मध्यमजनों ने छीन लिया। अर्जुन के पास तो मेहनत के वाणों से अपने के धणुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की कला थी, लेकिन आजकल मेहनत कर सकने वालों का दो कौड़ी मोल नहीं है। उन्हें स्वरोजगार के नाम पर पकौड़े तल कर बेचने के उपदेश दिए जाते हैं और यह उपदेश भी कर्जा प्राप्त करने की लालफीताशाही भूल-भुलैया में उलझे नजर आते हैं।
आजकल अर्जुन के धणुष की प्रत्यंचा पर आदशरे का माझा नहीं, सिफारिश और भाई-भतीजावाद का तेवर है, कोरे भाषणों की नाटकीयता है। लक्ष्य बेधने के लिए केवल नारे उछलते हैं। ऐसे माहौल में मंदी के अंधेरे गहराते जा रहे हैं, भला इसमें अपना लक्ष्य बेधने के लिए अर्जुन को मछली की आंख कैसे नजर आ जाती? आजकल नेकी और बदी के महाभारत नहीं सजते। महारथियों के सिर पर वंशवाद के ताज सज गए हैं।
उनके हाथों में सेवा से पहले मेवा पाने का ब्रह्मास्त्र है। ऐसे महारथियों को घेरने के लिए आज के अर्जुनों के पास न तो इन पूंजीपतियों के लौह कपाटों से घिरे चक्रव्यूह में घुसने और न ही तोड़ कर निकल जाने की विद्या है। आज का अर्जुन तो इस चतुर विद्या में सफलता के महामंत्र के पास भी नहीं फटकता। वह भला अपने बेटे को उसकी मां के गर्भ में रहते-रहते चक्रव्यूह तोड़ने की अधूरी विद्या ही कैसे सिखा दे?
निहत्था अर्जुन अपने महाभारत के मैदानों को हवाई मीनारों में तब्दील होता देख रहा है। इनके गुप्त द्वारों को खोलने की कोई विद्या उसके किसी गुरु ने उसे नहीं सिखाई। उसका बेटा जब तक विद्यालयों में जाकर अपनी पैतृक विद्या सीख पाता, वहां दी जा रही शिक्षा पुरातनपंथी घोषित की जा चुकी थी। वहां नई शिक्षा नीति के बनने का इंतजार अवश्य हो रहा था, लेकिन उसे बनाने वाले विद्वान खुद ही इतने नाकाबिल थे कि अपनी खींचतान में कोई शिक्षा नीति तो क्या पेश करते, उससे पहले भाषा के माध्यम पर ही उलझ पड़े।
होता है तमाशा दिन-रात मेरे आगे के अंदाज में ये स्कूल और कालेज इतने बरस तक उन्हें ऐसे सफेद कालर वाले बाबू बना कर उनके जीवन सफर में भेजते रहे कि जिनके पास अकेला गुण जी हजूरी या ठकुरसुहाती का था। अब जब नए तरीके से लड़ाई लड़ने की बारी आई, तो आज के अर्जुन निहत्थे थे, और नई पीढ़ी के अभिमन्यु चक्रव्यूह में घुसने का अधूरा ज्ञान भी नहीं रखते थे। दो कदम चलने के लिए भी उन्हें विदेशी महारथियों के बहुराष्ट्रीय कंपनियों जैसे रथों की चाहत थी।
बैसाखियां मिल गई हैं, क्योंकि उनके देश में सहारा मांगने वालों का आंगन बहुत बड़ा था। चार सदी पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के बंजारों ने यहां के दीवालिया बादशाहों के सामने कोर्निश बजाई थी, अब सरकारी उपक्रमों में विनिवेश के भस्मासुर के सहारे देश की मंडियों के आयातित सरताज उभर आए हैं। ये लोग किसी देश, या बस्ती को गुलाम नहीं बनाते, बस अपनी बाजार संस्कृति की बेड़ियां पहना देते हैं। अब बताइए, आज का अर्जुन कहां शरसंधान करने जाए? नई पीढ़ी के अभिमन्यु किससे चक्रव्यूह में घुसने का गुण सीखें।
देखते ही देखते इस देश को उन लोगों ने दो हिस्सों में बांट दिया। एक उनका भारत, जहां विदेशी आकाओं से परिचालित अर्थव्यवस्था में बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं हैं, विदेशी वातानुकूलित गाड़ियां हैं। उन्होंने ऐसे अभेध किले खड़े कर लिए कि अब बाकी पूरा देश या करोड़ों की आबादी उनके उत्साहजनक भाषणों को सुनने के सिवा कुछ नहीं कर सकती। मूक-दर्शकों की तरह या उन पंक्तिबद्ध भक्तजनों की तरह, जिन्हें नायक-पूजा विरासत में मिली है।
अंधेरा बढ़ता जा रहा है, इसे उपलब्धियों के प्रचार की कोई कलई रोशन नहीं कर पाती। महाभारत लड़े बिना ही खत्म हो गया। अब तो एक सड़क है और सत्तावन गलियां हैं। ये सब गलियां भूख, बेकारी और अवसाद के अंधे कुओं तक जाकर खत्म हो जाती हैं। आज के आहत अभिमन्यु वर्गभेद भूल कर कर उस धोखा खाए अश्वत्थामा के साथ भटक रहे हैं, जिसके माथे का घाव आज भी रिस रहा है।